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११. मुक्त करने का सिद्धान्त - Principle of Releasing
प्राण शक्ति उपचार के दौरान एक वायवी डोर (etheric link) स्वयं ही उपचारक और रोगी के बीच में बन जाती है। उपचार होने के लिए, यह आवश्यक है कि उपचार करने के पश्चात् प्रेषित प्राण ऊर्जा को उपचारक अपने से मुक्त कर दे । यह तभी सम्भव होता है, जब इस वायवी डोर को काट दिया जाए और उपचारक रोगी के प्रति तटस्थ हो जाए। इसकी विधि आगे भाग ५ के अध्याय १ के अन्तर्गत क्रम ( ख ) (१२) में दी गयी है। यदि यह वायवी डोर न काटी जाए, तो उपचारक के दूर चले जाने के बाद भी रोगी की रोग ग्रस्त ऊर्जा उपचारक को संक्रमित कर सकती है। इसी प्रकार उपचारक यदि रोगी के प्रति तटस्थ नहीं होता है, तो यह वायवी डोर काटने के बावजूद, पुनः जुड़ जाती है। इनसे प्रतिकूल प्रभाव न केवल उपचारक पर पड़ता है बल्कि रोगी के उपचार में भी अवरोध हो सकता है। ये दोनों के लिए हानिकारक है।
१२. समन्वयता का सिद्धान्त-- Principle of Correspondence
जो प्राण ऊर्जा अथवा वायदी शरीर को प्रभावित करती है, उसके भौतिक शरीर को भी प्रभावित करने की प्रवृत्ति रहती है । जब ऊर्जा शरीर का उपचार किया जाता है, तो भौतिक शरीर का भी उपचार हो जाता है।
१३. अन्तर्सम्बन्धता का सिद्धान्त-- Principle of Interconnectedness
रोगी के शरीर और उपचारक के शरीर दोनों के पृथ्वी के ऊर्जा शरीर ( earth's energy body) के अंश होने के कारण, परस्पर अन्तर्सम्बन्ध होता है। अधिक गूढ़ स्तर पर देखा जाए तो इसका यह मतलब निकलता है कि हम सब सौर्य मण्डल (solar system) के भाग हैं। समस्त ब्रह्माण्ड ( cosmos ) में हम सब अन्तर्सम्बन्धित है। इस अन्तर्सम्बन्धता का सिद्धान्त (एकता) oneness भी कहलाता है ।
१४. निर्देशिता का सिद्धान्त- Principle of Directability
जीवन शक्ति (प्राण ऊर्जा) को निर्देशित किया जा सकता है। इस सिद्धान्तानुसार यह निष्कर्ष निकलता है कि जहां आपका ध्यान ( attention) केन्द्रित (focus) किया जाये, प्राण ऊर्जा विचारों की अनुगामी हो जाती है। दूररथ प्राणशक्ति उपचार इसी निर्देशता के एवम् अन्तर्सम्बन्धता के सिद्धान्तों पर आधारित है।
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