SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है। विहृदय से तात्पर्य ब्रह्म चक्र तथा हृदय चक्र है। ये दोनों ही चक्र दिग्ग ऊर्जा को ग्रहण करते हैं। (ग) चक्र के गलत ढंग से कार्य करने के कारण रोग शारीरिक- हृदय के रोग, रुधिराभिसरण तंत्र के रोग, फैफई के रोग जिससे शरीर के प्रतिरक्षात्मक तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के कारण संक्रामक रोगों से लड़ने की क्षमता घटती है। यह थायमस ग्रंथि के सुचारु रूप से न कार्य करने के कारण होता है। थायमस ग्रंथि का वर्णन भाग २, अध्याय १० में दिया गया मनो-- मनोरोगों का हृदय चक्र पर भी प्रभाव पड़ता है, अतएव इन सभी रोगों में सौर जालिका चक्र के अतिरिक्त हृदय चक्र का भी उपचार आवश्यक है। (घ) विविध- जैसा कि ऊपर (ख) में वर्णित है, इसके १२ उर्ध्वमुखी पटल होते हैं। अगले हृदय चक्र में काफी मात्रा में सुनहरे रंग की ऊर्जा (दैवीय ऊर्जा) और थोड़ी सी हल्के लाल रंग की ऊर्जा होती है। पिछले हृदय चक्र में सुनहरे, लाल, नारंगी और पीले रंग की ऊर्जा होती है। (8) कण्ठ चक्र-- THROAT CHAKRA (क) स्थिति- यह चक्र कंठ के बीच में स्थित होता है। (ख) कार्य- यह थायराइड ग्रंथि (thyroid gland), गला, स्वर-बक्स (voice box) अथवा larynx, वायु-गली (trachea), पैराथायराइड ग्रंथि (parathyroid gland) और लिम्फेटिक तंत्र (lymphatic system) को नियंत्रित व ऊर्जित करता है। कुछ हद तक यह काम चक्र को भी प्रभावित करता है। काम चक्र से आने वाले ऊर्जा का एक भाग ऊर्जा की उच्च श्रेणी में परावर्तित होती है जो कण्ठ चक्र तथा सिर के अन्तर्गत चक्रों के सुचारू रूप से कार्य करने के लिए आवश्यक होती है। यह चक्र निम्न का केन्द्र बिन्दु है: (१) स्व-प्रकटता (self-expression)
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy