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यहाँ अभी इतना सल्लेख ही पर्याप्त होगा। इसका विस्तृत वर्णन अध्याय ११ में ऊर्जा चक्रों के अन्तर्गत कम 6- सौरजालिका चक्र के वर्णन में किया गया है।
अध्याय ६ जीव द्रव्य शरीर के कार्य (१) यह प्राणशक्ति को सोखकर सम्पूर्ण शरीर में उसका वितरण कर उसे ऊर्जित
करता हैं। प्राणशक्ति वह ओजस्वी ऊर्जा या जीवनशक्ति है जो पूरे शरीर का पोषण करती है। ऐसा होने पर शरीर अपने विभिन्न अंगों की मदद से ठीक प्रकार से तथा सामान्य ढंग से कार्य कर सकता है। प्राणशक्ति के बिना
शरीर मृत हो जाता है। (२) यह दिखाई देने वाले भौतिक शरीर के सांचे या उसकी अनुकृति की तरह
होता है। वर्षों की लगातार चयापचयन की प्रक्रिया के बावजूद यह दिखाई देने वाले भौतिक शरीर के आकार-प्रकार और बनावट को बनाये रखने में सहायता देता है। ठीक प्रकार से कहा जाए तो दिखाई देने वाले शरीर के अनुरूप ही जीव द्रव्य शरीर का निर्माण एक सांचे की तरह होता है। यदि जीव द्रव्य शरीर में कुछ गड़बड़ हो तो दिखाई देने वाले शरीर में भी गड़बड़ी होगी। इन दोनों का आपस में इतना अधिक गहरा सम्बन्ध होता है कि जो चीज एक को प्रभावित करती है वह दूसरे को भी करती है। यदि पहला बीमार होता है तो दूसरा भी रोगग्रस्त हो जाता है। यदि पहला रोगमुक्त होता है तो दूसरा भी निरोगी हो जाता है। कोई बाधा पहुंचाने वाले या रुकावट डालने वाले तत्त्व न हों तो यह प्रक्रिया धीरे-धीरे या लगभग
जल्दी ही पूरी होती है। (३) जीव द्रव्य शरीर चक्रों या तेजी स घूमने वाले ऊर्जा केन्द्रों की सहायता रो
सम्पूर्ण भौतिक शरीर और उराके विभन्नि भागों व अंगों के ठीक प्रकार से कार्य करने के लिए उत्तरदायी होता है और उन्हें नियंत्रित करता है। इसमें वे अंतःस्त्रावी ग्रंथियां भी सम्मिलित हैं जो कुछ बड़े चक्रों की बाहरी अभिव्यक्ति हैं। बहुत से रोग आंशिक रूप से किसी एक या अधिक चक्रों के ठीक प्रकार से कार्य न करने के कारण होते हैं।