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साथ घनिष्ठ सम्बन्ध थे। उपचार की तकनीकों के व्यावहारिक पक्ष और उसकी प्रभावशीलता की जांच व खोज में लगाए गए हैं I
श्री चोआ कोक सुई ने इस विद्या को सरल, सुगम और क्रमबद्ध ढंग से पुस्तकों की श्रृंखला में प्रकाशित किया। तदुपरांत वर्ष १६८७ से पूर्वी एशिया और फिर क्रमशः अमेरिका, यूरोप, भारत आदि अनेक देशों के अनेकानेक नगरों में कुशल एवम् अनुभवी उपचारकों (प्राणशक्ति उपचार के चिकित्सक) के माध्यम से प्राणशक्ति उपचार की इस दैवी विद्या को वैकल्पिक उपचार पद्धति के रूप में जन साधारण के सामान्य व जटिल रोगों के प्रभावी उपचार के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है। ऐलोपैथी दवाओं के प्रतिकूल पार्श्व प्रभावों से त्रस्त पश्चिमी देशों में भी इस बिना स्पर्श की प्रभावी वैकल्पिक उपचार पद्धति के प्रति निरन्तर आकर्षण बढ़ता जा रहा है। भारत में इस पद्धति का आगमन वर्ष १६६२ में केरल में हुआ, उसके बाद क्रमश: कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र देहली के उपरान्त वर्ष १६६६ में उत्तर प्रदेश में इसका प्रवेश हुआ।
अध्याय - ३
ऊर्जा शरीर
श्री चोआ कोक सुई के अनुसार मनुष्य का सम्पूर्ण जैविक शरीर मुख्यतः दो भागों से बना होता है। एक दृश्य शरीर, जो दिखाई देता है तथा दूसरा न दिखाई देने वाला ऊर्जा शरीर जिसे जीव द्रव्य शरीर कहते हैं। प्रथम शरीर को भौतिक शरीर भी कह सकते हैं। जीव द्रव्य शरीर अदृश्य रूप से वह चमकदार आभा शरीर है जो दृश्य को भेदकर उसके बाहर चारों ओर साधारणतः चार या पाँच इंच तक फैला होता है । परम्परागत रूप से इस ऊर्जा शरीर को वायवी शरीर या वायवी चोला ( etheric double) भी कहते हैं। इसको उपचार से प्राण शब्द से भी सम्बोधित किया जाता है, यद्यपि जैन शास्त्रों में वर्णित "प्राण" से इसका तात्पर्य नहीं है ।
जीव द्रव्य (bioplasmic) शब्द का निर्माण दो शब्दों से बना है: पहला 'जीव' (बायो ) यानी जीवन और दूसरा द्रव्य' (प्लास्मा) यानी पदार्थ का चौथा रूप पदार्थ के
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