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(ख) 'णमो'- (सत्यार्थ पाक्षिक पत्र से उद्धृत)
जैन समाज में परमेष्ठी नमस्कार महामंत्र का सर्वाधिक महत्व है।
'णमोकार महामंत्र पाप रूपी पर्वत को भेदने के लिए वज्र के समान है, कर्म रूपी वन को भस्म करने के लिये दावानल है, दुःख रूपी बादलों को बिखेरने के लिए प्रचण्ड पवन है, मोह रूपी दावानल को शान्त करने के लिए नवीन मेघों के समान है, कल्याण रूपी बेल का उत्कृष्ट बीज है, सम्यक्त्व के उत्पन्न होने के लिये रोहणाचल की धरती के समान है।
मन्त्र साधन है। अच्छे मंत्रों का श्रद्धापूर्वक, लयबद्ध, शुद्ध आत्मनिष्ठा, संकल्प शक्ति के समन्वय के साथ किया गया जाप अत्यन्त शक्तिशाली हो जाता है। मंत्र के निरन्तर जप से होने वाले कम्पन अपने स्वरूप के साथ ध्वनि तरंगों पर आरोहित होकर पलक झपकें, इतने समय में समस्त भूमण्डल में ही नहीं अपितु १४ राजूलोक में अपना उद्देश्य प्रसारित कर देते हैं। जाप के शब्दों की पुनरावृत्ति होते रहने से उच्चारित किये गये शब्दों की स्पन्दित तरंगों का एक चक्र (सर्किल) बनता है।
मन्त्रों के जाप से निकली तरंगों से, मंत्र योजकों द्वारा बताए वांछित कार्य किये जा सकते हैं। जाप क्रिया में साधन को तथा वातावरण को प्रभावित करने की दोहरी शक्ति है।
जाप करने वाला मन के विग्रह से सारे विश्व के प्राण मण्डल में स्पन्दन का प्रसार कर देता है। मन एक प्रेषक यन्त्र की तरह कार्य करता है। मन रूपी प्रेक्षक यंत्र से प्राण शक्ति रूपी विद्युत द्वारा विश्व के प्राण मण्डल में सम्पन्दन फैलाया जाता है, जो उन जीवों के मनरूपी यंत्रों पर आघात करता है जिनमें जाप करने वाले योगी कोई भावना जगाना चाहते हैं। क्योंकि वाणी का मन से, मन का अपने व्यक्तिगत प्राण से और अपने प्राण का विश्व के समष्टि प्राण से उत्तरोत्तर सम्बन्ध है। इसीलिये मंत्रों की रचना में विशेष प्रकार के वर्णों और शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिनके प्रभाव से विशेष शक्ति को जगा देने वाले स्पन्दन प्राणमय जगत् में आन्दोलन करते
है
साधक को प्रभावित करने की स्थिति होती है, मंत्रों के जाप से मनुष्य की ग्रन्थियों का स्राव सन्तुलित हो जाता है, स्नायु संस्थान व्यवस्थित हो जाता है, भावों