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आपके वश में नहीं है। यदि आपको कोई स्वयं की हानि हो गयी है, तो संसार दशा का विश्लेषण अथवा तत्त्वों का चिन्तन अथवा आत्मा के आकिञ्चन्य धर्म का मनन करें। क्रोध- इसको क्षमा द्वारा जीतें। आकिंचन धर्म हमें बताता है कि इस आत्मा का किसी भी अन्य आत्मा या द्रव्य से किंचित भी सम्बन्ध नहीं है, अतएव क्रोध किस पर ? भय- आत्मा अजर, अमर है। इसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। जीवन-मरण मात्र संसार चक्र है, वह आत्मा के गुणों का घात नहीं कर सकता। शरीर को आत्मा से अलग कर देखें तथा तदनुसार चिन्तवन करें। शोक- आत्मा के एकत्व गुण को अथवा आकिञ्चन्य धर्म का मनन करें। वैराग्य भावनाओं का चिन्तवन करें।
मन के विषय में पूज्य मुनि श्री १०८ तरूण सागर जी के भोपाल में जामा मस्जिद के सामने सार्वजनिक सभा में दिये गये एक मननीय प्रवचन "मन को कैसे जिएँ" से उद्धृत सारांश भाग १ के परिशिष्ट १०६ में दिया हैं (६) स्वस्थ आत्मा
अपने जीवन को धर्ममयी बनायें। जिस प्रकार दूध-शक्कर आपस में घुल जाते हैं, उसी प्रकार जीवन और धर्म का तालमेल होना चाहिए। धर्म की अनेक परिभाषायें हैं जैसे वस्तु का स्वभाव, दशलक्षण धर्म, सम्यकदर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यकचारित्र अर्थात रत्नत्रय व्यवहार एवम् निश्चय, अहिंसा परमो धर्म, पंचपरमेष्ठी भक्ति, षोडशकारण भावनायें, आत्म ध्यान आदि। वस्तुतः इनमें कोई विशेष भेद नहीं है। सभी एक दूसरे की पूरक हैं तथा एक दूसरे के बिना अधूरी हैं। (७) स्वस्थ जीवन यापन
अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में चाहे वह व्यवसायिक हो या नौकरी या अन्य कोई, न्यायपूर्वक धन अर्जित करें। रिश्वतखोरी, अन्याय की कमाई, स्थूल झूठ. मिलावट, कर की चोरी, हिंसात्मक जीवन शैली से बचें। याद कर जब वक्ते पैदाइश,
सभी हँसते थे, तू रोता। कुछ ऐसी करनी से रह कि,
मरते वक्त सभी रोते हैं, तू हसता।।