________________
निराकुल भाव से समाधिमरण को पूर्ण करना जीवन की सम्पूर्ण संचित साधनाओं को सफल बनाना है। समाधिमरण व्रतों की रक्षा के प्रति सावधान रहने की प्रतिज्ञा का निर्वाह है। जो व्रत भंग करके जीवित रहता है, उसको भी मृत्यु पूछ लेती है। तब व्रतों की पालना करते हुए ऊर्ध्व गति को प्राप्त करना सर्वोत्तम पक्ष है. अन्यथा सल्लेखना के अभाव में सम्यक्त्वधारी को भी अर्द्धपुद्गलपरावर्तन काल तक संसार में परिभ्रमण करना पड़ सकता है जो लगभग अनन्त काल सदृश ही है। शाश्वत धर्मपालन को नश्वर देह के लिए नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि देह तो फिर मिल सकता है, धर्म की प्राप्ति दुर्लभ है। समाधि सप्तदशी में कहा है
सुदत्तं प्राप्त्यते यस्माद् दृश्यते पूर्वसत्तमैः । भुज्यते स्वर्भवं सौख्यं मृत्योर्भीतिः कुतः सताम् ।।४।।
अर्थात्-पूर्व काल के ऋषि और गणधर आदि सत्पुरुष ऐसा कहते हैं कि अपने किए हुए कर्तव्य तथा चारित्र का फल तो मृत्यु होने पर ही पाया जाता है। स्वर्गसुखों का भोग भी मृत्यु के अनन्तर ही मिलता है। उस तप: परिणामदायी मृत्यु से भय क्या ?
संसारासक्तचिन्तानां मृत्युीत्यै भवेन्नृणाम् । मोदायते पुनः सोऽपि ज्ञानवैराग्यवासिनाम् ।।१०।।
पुराधीशो यदा यति सुकृतस्य बुभुत्सया। अर्थात्- जिन जीवों का चित्त संसार में आसक्तिमान् है, वे अपने आत्मरूप को नहीं जानते, इसीलिए उन्हें मृत्यु भयप्रद प्रतीत होती है; किन्तु जो महान आत्माएँ आत्मस्वरूप को जानती हैं और वैराग्य धारण करती हैं, उनके लिए तो मृत्यु आनन्ददायी है। सारांश- रत्नत्रयपूर्वक जीवन का सुफल एक मात्र सल्लेखना के माध्यम से ही सम्भव है। अतएव मृत्यु को एक उपकारी मित्र की तरह देखते हुए उत्साहपूर्वक रत्नत्रयपूर्वक सल्लेखना धारण कर निर्वाण प्राप्ति के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिए।
१.२५२