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(२) सल्लेखना क्या है ?
"सम्यक्कायकषायलेखना, कायस्य बाह्यम्यन्तराणां कषायाणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना" (पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि ७–२२)
अर्थात्- सम्यक् प्रकार से काय और कषाय को कृश करने का नाम सल्लेखना है।
भगवती आराधना में आचार्य शिवकोटि कहते हैंसल्लेहणा य दुविहा अभंतरिया या बाहिरा चेव ।
अब्भंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे ।।२११।। अर्थ- सल्लेखना दोय प्रकार है। एक आभ्यंतर सल्लेखना दूजी बाह्य सल्लेखना। तहां जो क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायनि का कृश करना सो आभ्यंतर सल्लेखना है अर शरीर को कृश करना सो बाह्य सल्लेखना। सर्व जे बलवान रस, तिननै त्याग करिकै अर प्राप्त हुवा जो रूक्ष भोजन वा औरहू रसादिरहित भोजन ताकरिकै शरीरकू अनुक्रमः कृश करै। शरीरनै कृश करने का कारण बाह्य तप १- अनशन २- अवमोदर्य ३- रसत्याग ४वृत्तिपरिसंख्यान ५- कायक्लेश ६- विविक्तशय्यासन ऐसे छह प्रकार कहना है। यह बाह्य सल्लेखना है। क्रोधकू उत्तमक्षमाकरिके, अर मानकू मार्दवकरिके, अर मायाकषायकू आर्जवकरिके, अर लोभकू सतोषकरिके ऐसे च्यारि कषायनिकू जीतहु। यह आभ्यंतर सल्लेखना है। कषाय सल्लेखना का प्रमुख साधन शुक्लध्यान, धर्म ध्यान, अनुप्रेक्षायें (वैराग्य भावना) हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र, तप, त्याग और संयम आदि गुणों के द्वारा चिरकाल तक आत्मा को भावित करने के बाद आयु के अन्त में अनशनादि विशेष तपों के द्वारा शरीर को और श्रुतरूपी अमृत के आधार पर कषायों को कृश करना ही सल्लेखना है। जिस प्रकार मूल (जड़) से उखाड़ा हुआ विषवृक्ष ही प्रयोजन की सिद्धि करता है, मात्र शाखाओं. डालियों एवम
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