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________________ पत्रों आदि का काटना नहीं, उसी प्रकार कषायों की कृशता के साथ की हुई कायकृशता ही प्रयोजन की संरक्षिका है, मात्र काय की कृशता नहीं। (३) सल्लेखना के लिए उपयुक्त स्थान सागार धर्मामृत में सल्लेखना के इच्छुक व्यक्ति के लिए चार स्थान उपयुक्त माने हैं- (१) जिनेन्द्र देव का जन्म कल्याणक स्थल (२) जिन मन्दिर (३) तीर्थ स्थान (४) निर्यापकाचार्य का सान्निध्य। समाधिमरण का इच्छुक श्रावक यदि समाधिमरण के लिए तीर्थ स्थान अथवा निर्यापकाचार्य के निकट जाने के लिए जाता हुआ बीच में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तब भी वह आराधक ही है, क्योंकि उसकी हार्दिक इच्छा संसार की नाशक होती है। (४) सल्लेखना की विधि प्रत्येक श्रावक अपने समस्त जीवनकाल में साम्यभावपूर्वक समाधिमरण की कामना व साधना करता है तथा भावना करता है कि - ऐसा समय हो भगवन्, जब प्राण तन से निकलें। शुद्ध आत्मा हमारी, सब दोष मन से निकलें।। टेक।। मुनिराज मेरे सन्मुख, उपदेश दे रहे हों। उपदेश सुन कषाय, अन्तःकरण से निकलें।।१।। ऐसा०।। होवे समाधि पूरी, जब प्राण तन से निकलें। होवे समाधि पूरी, तब प्राण तन से निकलें ।।२।। ऐसा० अकस्मात मृत्यु के आ पड़ने पर वह साधक तत्काल सल्लेखना को धारण कर शरीर को छोड़ देता है, अन्यथा उत्कृष्ट रूप से बारह वर्ष की समाधि की प्रतिज्ञा धारण कर लेता है। इस प्रकार सल्लेखना की उत्कृष्ट अवधि बारह वर्ष प्रमाण तथा जघन्यावधि अन्तर्मुहूर्तकाल प्रमाण है (धवला १/१,२, १/२४)। इस पंचम काल में भक्तप्रत्याख्यान ही होता है। इसमें साधक ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि "मैं सर्वप्रथम हिंसादि पांच पापों का त्याग करता हूँ, मेरे सब जीवों में समता भाव है, किसी के साथ मेरा वैर भाव नहीं है, इसलिए मैं सर्व आकांक्षाओं को तोड़कर समाधि परिणाम को प्राप्त होता हूँ। मैं सब अन्नपान १.२४७
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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