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महा साधवः महा साधवः महा साधवो दिगम्बराः । एवं तत्वं सदा भवतु यावन्न मुक्तिसंगमः ।। ५० ।।
अर्थ -- दिगम्बर ही महासाधु होते हैं, दिगम्बर ही महासाधु होते हैं, दिगम्बर ही महासाधु होते हैं । हे प्रभो, जब तक मुझे मोक्ष की प्राप्ति न हो, तब तक मेरे हृदय में यही (देव जिनेन्द्र ही हैं, धर्म दया मय ही है और गुरु निर्ग्रन्थ ही हैं) तत्व सदा बना रहे । । ५० ।।
एवमेव गतः कालोऽनन्तो हि दुःख संगमे ।
जिनोपदिष्ट संन्यासे न यत्ना रोहणा कृता ।। ५१ ।।
अर्थ- हे प्रभो, आज तक का मेरा अनन्तकाल दुख भोगते-भोगते ही व्यतीत हुआ है। मैंने अब तक कभी जिनेन्द्र देव द्वारा कहे हुए समाधिमरण पूर्वक मरण करने का प्रयत्न नहीं किया | ५१||
सम्प्रति एव सम्प्राप्ताऽराधना जिन देशिता ।
का का न जायते मम सिद्धि सन्दोह सम्पतिः । । ५२ ।।
अर्थ - अब इस समय मुझे भगवान जिनेन्द्र देव द्वारा कही हुई आराधना प्राप्त हुई है। इसके प्राप्त होने से अब इस संसार में ऐसी कौन सी सिद्धियों की समूह रूप सम्पत्ति है जो मुझे प्राप्त न हो । । ५२ ॥
अहो धर्मः अहो धर्मः अहो मे लब्धि निर्मला ।
संजाता सम्पत् सारा येन सुख मनुपमम् ।। ५३ ।।
अर्थ - श्री जिनेन्द्र देव द्वारा कहा हुआ यह दयामयी धर्म अत्यन्त आश्चर्यकारक है, सर्वोत्कृष्ट है और सर्वोत्तम है। मुझे प्राप्त हुई यह अत्यन्त निर्मल काल लब्धि भी अतिशय आश्चर्य उत्पन्न करने वाली है। इस दयामय धर्म और निर्मल काल लब्धि के प्रसाद से मुझे आराधना स्वरूप सर्वोत्तम सम्पत्ति प्राप्त हुई है। इस आराधना रूप महासम्पत्ति से ही मुझे उपमातीत मोक्ष सुख प्राप्त होगा, यह निश्चय है । । ५३ ।।
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