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शुभाशुभ भाव विगतः शुद्धस्वभावेन तन्मयं प्राप्तः ।
अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा । । ४५ ।।
अर्थ- जो शुभ-अशुभरूप दोनों ही भावों से रहित है और जो केवल अपने शुद्ध स्वभाव में ही प्रतिष्ठित है, ऐसा परमात्मा ही मुझे शरणभूत है, अन्य कोई शरण नहीं है । । ४५ ।।
न स्त्री न नपुंसको न पुमान नैव पुण्यपाप मयः । अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ।।४६ ।।
अर्थ- जो न स्त्री है, न नपुंसक है, न पुरुष है, न पुण्य-पाप रूप है, ऐसा परमात्मा ही मुझे शरणभूत है, अन्य कोई शरण नहीं है । । ४६ ।।
तव को न भवति स्वजनः त्वं कस्य न बंधुः स्वजनो वा । आत्मा भवेत आत्मा एकाकी ज्ञायकः शुद्धः ||४७ |
अर्थ- हे आत्मन! इस संसार में तेरा कोई कुटुम्बी नहीं है, तथा तू भी किसी का कुटुम्बी नहीं है। यह आत्मा सदा आत्मा ही रहता है, सुस्थिर है, अकेला हैं, सर्व पदार्थों का ज्ञाता है, सदैव शुद्ध है और अनन्त सुखमय है । । ४७ ।।
जिन देवो भवतु सदा मतिः सुजिनशासने सदा भवतु । सन्यासेन च मरणं भवे भवे मम सम्पत् ।।४८ ।।
अर्थ- मैं जिनदेव की ही सदा सेवा करता रहूं। मेरी बुद्धि सदा जिनशासन में अर्थात् धर्म में बनी रहे और मेरा मरण समाधिपूर्वक ही हो, अन्य प्रकार से न हो। यह सम्पति मुझे भव भव में प्राप्त होती रहे । ।४८ ।।
जिनो देवो जिनो देवो जिनो देवो जिनो जिनः । दया धर्मों दया धर्मो दया धर्म दया सदा ।। ४६ ।।
अर्थ-- इस संसार में देव जिन ही हैं, देव जिन ही हैं, देव जिन ही हैं, जिनेन्द्र देव ही देव हैं अन्य कोई देव नहीं है । धर्म दयामय ही है, धर्म दयामय ही है, धर्म दया मय ही है, धर्म सदा दयास्वरूप ही है। दया बिना धर्म हो ही नहीं सकता । ४६ ।।
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