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जिन वचनं धर्मः चैत्यं जिन प्रतिमा कृत्रिमा अकृत्रिमाः ।
ये ये विराधिता खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ||२५|| अर्थ- जिन वाणी, जिन धर्म, जिन चैत्यालय और कृत्रिम अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं की मैंने जो जो विराधना की हो, वे मेरे सर्व पाप मिथ्या हों ।।२५ ।।
दर्शन ज्ञान चारित्रे दोषा अष्टाष्ट पंच भेदाः ।
ये ये विराधिता खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ।।२६ ।। अर्थ-- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के आठ-आठ दोष हैं और सम्यकचारित्र के पांच दोष हैं, इन समस्त दोषों में जी-जा दोष मुझसे हुए ही, व मेरे सब पाप मिथ्या हों।
मतिः श्रुतमवधिः मनपर्ययं तथा केवलं च पंचकम्।
ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ।।२७।। अर्थ- हे भगवन, मैंने मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान, इन पांचों ज्ञानों में से जिस जिस ज्ञान की विराधना की हो, मेरे तत्सम्बन्धी सर्व पाप मिथ्या हों।।२७।।
आचारादीन्यंगानि पूर्वप्रकीर्णकानि जिनेः प्रणीतानि।
ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं ||२८|| अर्थ- हे भगवन, श्रुतज्ञान के ग्यारह अंग, चौदह पूर्व और प्रकीर्णक आदि जिनेन्द्र ने कहे हैं. मैने उनके स्वरूप आदि में जो विराधना की हो, वे मेरे सर्व पाप मिथ्या हों।।२८।।
पंच महाव्रतयुक्ता अष्टादशसहस्रशील कृत शोभाः ।
ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ।।२६।। अर्थ- हे प्रभो, पांच प्रकार के महाव्रतों से सुशोभित और अठारह हजार शील व्रत से विभूषित ऐसे अयोगि--जिन की जो विराधना (अश्रद्धा, अवज्ञा, अनादर) की हो, तत्सम्बन्धी मेरे सर्व पाप मिथ्या हों ।।२६ ।।
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