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जीवों में से जिन-जिन जीवों की विराधना मुझसे हुई हो, मेरा वह सर्व पाप मिथ्या हो । ।१४-१५ । ।
पृथ्वी जलाग्नि वायु तेजो वनस्पतयश्च विकलत्रयाः ।
ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ।। १६ ।।
अर्थ- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक वनस्पतिकायिक और सकायिक जीव जो-जो मुझसे विराधे गये हों, वे मेरे सर्व पाप मिथ्या होंवे ||१६||
मल सप्तति र्जिनोक्ता व्रत विषये वा विराधना विविधा | सामायिक क्षमादिका मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ||१७||
अर्थ- भगवान जिनेन्द्रदेव ने बारह व्रतों, सम्यक्त्व के और समाधिमरण के जो सत्तर अतिचार बतलाये हैं, उनमें से जो जो अतिचार मुझे लगे हों या व्रतों की विराधना हो गई हो या सामायिक और क्षमा भावों की विराधना हुई हो, तो वे मेरे सर्व पाप मिथ्या हों । । १७ । ।
फल पुष्प त्वग्वल्ली अगालित स्नानं च प्रक्षालनादिर्भि । ये ये विराधिता खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु || १८ ||
अर्थ - फल, फूल, छाल एवं लता आदि का उपयोग करते हुए जिन-जिन जीवों की विराधिना हुई हो, बिना छने जल से स्नान करने में और बिना छने जल से वस्त्र धोने आदि में जिन-जिन जीवों की विराधना हुई हो तथा जलकायिक जीवों की विराधना हुई हो, तो उन सबसे होने वाला पाप मेरा मिथ्या हो । । १८ ।।
न शीलं नैव क्षमा विनयस्तपो न संयामोपवासाः ।
न कृता न भावनी कृता मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ।। १६ ।।
अर्थ- हे भगवन, मैंने जो शील पालन न किया हो, क्षमा भाव धारण न किया हो, देवशास्त्र- गुरु और धर्मायतनों की विनय न की हो, संयम पालन न किया हो तथा उपवास आदि तपश्चरण न किया हो तथा धारण करने की भावना भी न की हो, तो तत्सम्बन्धी मेरे सर्व पाप मिथ्या हों । १६ ।।
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