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सम्प्रति जिनवर धर्म लब्धोऽसि त्वं विशुद्ध योगेन।
क्षमस्व जीवान् सर्वान् प्रत्येक समये प्रयत्नेन ।।१०।। अर्थ- रे जीव, इस समय मन वचन काय की विशुद्धि होने से तुझे इस जैन धर्म की प्राप्ति हुई है, इसलिये बड़े प्रयत्न के साथ प्रत्येक क्षण (समय) तू समस्त जीवों पर । क्षमा भाव धारण कर। विशुद्ध भावों से दया पालन कर ।।१०।।
त्रीणि शतानि त्रिषष्ठि मिथ्यात्वानि दर्शनस्य प्रतिपक्षाणि।
अज्ञानेन अद्धितानि मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ।।११।। अर्थ- मिथ्यात्व सम्यकत्व का प्रतिपक्षी है और उसके तीन सौ बेसठ भेद हैं। यदि मैंने । अपने अज्ञान से श्रद्धान किया हो, तो मेरे सर्व पाप मिथ्या हों ।।११।।
मधुमांसमद्यद्यूत प्रभृतीनि व्यसनानि सप्तभेदानि।
नियमो न कृतस्तेषां मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ।।१२।। अर्थ- मद्य, मांस, मधु और जुआ प्रभूति व्यसनों के जो सात भेद हैं, उनके त्याग का नियम यदि मैंने न लिया हो, तो वह मेरा सब पाप मिथ्या हो।।१२।।
अणुव्रत महाव्रतानि यानि यम नियम शीलानि साधु गुरु दत्तानि।
यानि यानि विराधितानि खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ।।१३।। अर्थ- साधु परमेष्ठी अथवा आचार्य परमेष्ठी आदि पूज्य पुरुषों ने मेरे हित के लिये अणुव्रत, महाव्रत एवं सप्तशील यथायोग्य नियम एवं यम रूप से दिये हों और उनमें से जिन-जिन व्रतों की विराधना हुई हो, वे मेरे सर्व पाप मिथ्या हों।।१३।।
नित्येतर धातु सप्त तरुदश विकलेन्द्रियेषु षट् चैव। सुर नारक तिर्यक्षु चत्वारश्चतुर्दश मनुष्ये शतं सहस्राणि ।।१४।। एते सर्वे जीवाश्चतुर शीति लक्ष योनि निवसे प्राप्ताः।
ये ये विराधिता खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ।।१५।। अर्थ- नित्य निगोद जीवों, इतर निगोद जीवों की सात-सात लाख, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक की सात-सात लाख, वनस्पतिकायिक की दस लाख, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चौइन्द्रिय की दो-दो लाख, देवों की, नारकियों की, पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की चार-चार लाख, मनुष्यों की चौदह लाख योनियों में प्राप्त हुए
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