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________________ त्रीणि शतानि षट्त्रिंशानि षट् षष्ठि सहस्र बार मरणानि । अन्तर्मुहूर्तमध्ये प्राप्तोऽसि निगोदमध्ये ।।५।। अर्थ- हे जीव. तूने निगोद में अन्तर्मुहूर्त काल में ६६३३६ वार मरण किया।।५।। विकलेन्द्रिये अशीति षष्ठिं चत्वारिंश देव जानिहि। पंचेन्द्रिये चतुर्विशतिक्षुद्रभवान् अन्तर्मुहूर्ते ।।६।। अर्थ- हे जीव, तूने अन्तमुहूर्त काल मे दो इन्द्रिय अवस्था में ८० क्षुद्रभव, तीन इन्द्रिय अवस्था में ६० क्षुद्रभव, चौइन्द्रिय अवस्था में ४० क्षुद्रभव व पंचेन्द्रिय अवस्था में २४ क्षुद्र भव धारण किये ।।६।। ___ अन्योन्यं ऋध्यन्तो जीवा प्राप्नुवन्ति दारुणं दुखःम। न खलु तेषां पर्याप्तिः कथं प्राप्नोति धर्ममति शून्यः ।।७।। अर्थ- परस्पर क्रोध करते हुए ये जीव अत्यन्त घोर दुःख पाते हैं। उनकी कभी पर्याप्ति ही पूरी नहीं होती और धर्मविभी नहीं है, अतः ते अगतानन्त जन्म-मरण के दुःखों को सहन करते हैं ।।७।। माता पिता कुटुंबः स्वजन जनः कोपि नायाति सह । एकाकी भ्रमति सदा न हि द्विदीयोऽस्ति संसारे ।।८।। अर्थ- इस संसार में परिभ्रमण करते हुए इस जीव के साथ माता, पिता, कुटुम्बी जन तथा अपने परिवार के मनुष्यों में से कोई भी साथ नहीं जाता। यह जीव सदा अकेला ही परिभ्रमण किया करता है। इसका साथी कोई दूसरा नहीं होता।। || __ आयुः क्षयेपि प्राप्ते न समर्थः कोपि आयुर्दाने च। देवेन्द्रो न नरेन्द्रो मण्यौषधमन्त्र जालानि ।।६।। अर्थ- जब आयु पूर्ण हो जाती है, तब कोई भी उस आयु को बढ़ा नहीं सकता। न देवों का इन्द्र, न चक्रवर्ती बढ़ा सकता है और न मणि, औषधि एवम् मन्त्रों का समूह . ही आयु को बढ़ा सकता है। ।।६।। १.२३४
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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