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परिशिष्ट १.०६ कल्याणालोचना
रचियता- अजित ब्रह्मचारी
(प्रेरणास्रोत- मातेश्वरी रव० अनारदेवी जैन, हाथरस) परमात्मानं वद्धितमतिं परमेष्ठिनं करोमि नमस्कार।
स्वकपर सिद्धिनिमित्तं कल्याणालोचनां वक्ष्ये ।।१।। अर्थ- जिसका ज्ञान अनन्त परिमाण तक बढ़ा हुआ है ऐसे अरिहंत परमेष्ठी को मैं नमस्कार करता हूँ तथा स्वात्म-सिद्धि के लिये और अन्य जीवों के कल्याण की सिद्धि के लिये मैं कल्याणालोचना कहता हूं।।१।।
रे जीव अनंत भवे संसारे संसरता बहुवारम। ___प्राप्तो न बोधिलाभः मिथ्यात्व विजूंभित प्रकृतिभिः ।।२।। अर्थ- रे जीव, भिथ्यात्व कर्म की बढ़ी हुई प्रकृतियों के द्वारा इस अनन्त जन्म-मरणरूप संसार में तूने अनन्त बार परिभ्रमण किया किन्तु तुझे रत्नत्रय की प्राप्ति कभी नहीं हुई।।२।।
संसार भ्रमण गमनं कुर्वन् आराधितो न जिन धर्म।
तेन विना वरं दुःखं प्राप्तोऽसि अनंत वारम् ।।३।। अर्थ- इस संसार में परिभ्रमण करते हुए तूने जिन धर्म का आराधन कभी नहीं किया और उस जिन धर्म के बिना इस संसार में तुझे अनंतबार महादुःख प्राप्त हुए।।३।।
संसारे निवसन अनन्त मरणानि प्राप्तोऽसि त्वम्।।
केवलिना विना तेषां संख्या पर्याप्तिनं भवति ।।४।। अर्थ- इस संसार में निवास करते हुए तूने अनन्तबार मरण किये, किन्तु केवल उस एक जैन धर्म के बिना उन मरणों की संख्या पूरी नहीं हुई।।४।।
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