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(६) संधान
अर्थात् अचार, मुरब्बा। इसमें से किसी की मर्यादा चार प्रहर और किसी की आठ प्रहर ( १ प्रहर = ३ घंटे) की हुआ करती है। इसके पाश्चात् इनमें सूक्ष्म असंख्यात् जीव पैदा हो जाते हैं ।
(७) से ( ११ ) पंच उदम्बर फल
बड़, पीपल, ऊमर (गूलर), कठूमर (कटहल ). । ये सब त्रस जीवों से युक्त होते हैं। से सर्वथा असेवनीय हैं। स्व स्पष्ट है।
पाकर- अजीर अनजान फल (१३) कंदमूल जो पदार्थ जमीन के भीतर ही भीतर अपने अवयवों की अवस्था
( १२ )
पूर्ण करे, जैसे आल, अरबी (घुइयाँ), शलजम, शकरकन्द रतालू, मूली की जड़, गाजर की जड़, लहसुन, प्याज, अदरख आदि । ये पदार्थ अनन्तकायिक (एकेन्द्रिय जीव सहित ) होते हैं और तामसिक वृत्ति के होते हैं ।
(१४) मिट्टी - इसमें अनन्तकायिक जीव होते हैं। ये रोग भी पैदा कर सकती है। (१५) विष - जो पदार्थ आत्मा की परणति या उसकी बुद्धि को विकारी बनादे, जैसे संखिया, गांजा, चरस, तम्बाकू, अफीम, तेजाब आदि । यदि संखिया वैद्यों द्वारा रोगादिक को दूर करने के लिए उपयोग में लाए जाते हैं, तो अभक्ष्य नहीं है । (१६) मांस इसमें अनन्त अदृश्य सूक्ष्म जीव बिलबिलाते रहते हैं । जीव बध व हिंसा का घोर पाप लगता है। यह घोर अभक्ष्य है ।
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जो मांस भक्षण का त्यागी है, उसको चमड़े के संसर्ग से पाये जाने वाले पदार्थ का सेवन नहीं करना चाहिए, जैसे चमड़े की मसक का पानी, चमड़े के पात्र में रखा घी, तेल, हींग आदि तथा चमड़े का बटुआ, बेल्ट आदि का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार अण्डे का भी सेवन नहीं करना चाहिए, इसमें मांस जैसा ही दोष होता है ।
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(१७) मधु (शहद) - यह मधुमक्खी का वमन मात्र होता है। इसमें बहुत अधिक सूक्ष्म जीव होते हैं । यह घोर अभक्ष्य है।
( १८ ) ऐसे पुष्पादि जिनसे कस जीव अलग नहीं किये जा सकते, जैसे गोभी का फूल ।
(१६) मक्खन
नवनीत अर्थात् लोनी न केवल हिंसाकारक है अपितु विशेषकर कामवासना पैदा करने वाली और विकृतिकारक है।
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