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७. ऐसा मानता है कि व्यवहार-धर्म बंध मार्ग है, परन्तु बंध-मार्ग होने के
साथ ही साथ वह आत्मोन्नति के मार्ग में निचली भूमिका में प्रयोजनभूत भी है। नरक के डर से अथवा स्वर्ग के लोभ से होने वाला कार्य धर्म-कार्य नहीं हो सकता। आत्म-स्वभाव में लग जाने/ठहर जाने की भावना से प्रेरित कार्य को ही व्यवहार धर्म-कार्य कहा जाता है। कषाय के नाश का उपाय अपने ज्ञान-स्वभाव का. अनुभवन करना है। जितना कषाय का अभाव होता है उतना परमात्मपने के नजदीक होता जाता है। और जब कषाय का सर्वथा अभाव हो जाता है, तब परमात्मा हो जाता है। यही धर्म है, यही वस्तु स्वभाव है। मेरे में परमात्मा होने की शक्ति है, अपने सही पुरुषार्थ से उस शक्ति को व्यक्त किया जा सकता है। भगवान किसी का कुछ कर्त्ता नहीं है। वह वीतराग और सर्वज्ञ है- न किसी को सुखी कर सकता है, न दुःखी कर सकता है। वह तो अपने स्वभाव में लीन है, उनको देखकर हम भी अपने स्वभाव को याद कर लें और उनके बताये मार्ग पर चलकर निज में परमात्मा बनने का उपाय कर सकते हैं।
यह सब निर्णय जो ऊपर में बताया है वह चौथे गुणस्थान में होता है जिसका वर्णन आगे पैरा ४.२ किया है। ३.० जैसा कि ऊपर विचार कर आये हैं, धर्म के लिये- निज ज्ञान-आनन्द-स्वभाव
की प्राप्ति के लिये, कषाय का नाश करना जरूरी है। कषाय/ राग-द्वेष की उत्पत्ति का कारण अपनी अज्ञानता है, शरीर और कर्मफल में अपनेपने की मिथ्या मान्यता है। अपने स्वरूप को यह जीव जाने तो इसका शरीरादि में अपनापना छूटे, शरीरादि में अपनापना छूटे तो कषाय पैदा होने का कारण दूर हो, और कषाय पैदा होने का मूल कारण दूर हो तो उसके बाद, राग-द्वेष के जो पूर्व संस्कार शेष रह गए हैं उनके क्रमशः अभाव का उपाय बने, और इस प्रकार जितना-जितना कषाय -राग-द्वेष घटता जाये उतनी-उतनी शुद्धता आती जाये।
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