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४.० . गुणस्थानः
कषाय के माप के लिए चौदह गुणस्थानों का निरूपण आगम में किया गया है। जैसे थर्मामीटर के द्वारा बुखार का माप किया जाता है, वैसे ही गुणस्थानों के द्वारा मोहरूपी बुखार का माप होता है। जैसे-जैसे कषाय में कमी होती है, बाह्य में परावलम्बन घटता है और अंतरंग में स्वरूप से निकटता बढ़ती है- आत्मा उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होती है। ४.१ पहला गुणस्थान
जब तक यह जीव कर्म और कर्मफल में - शरीर तथा राग-द्वेष में अपनापना स्थापित किये हुए है तब तक यह पहले गुणस्थान में ही स्थित है।
यहां से आगे की ओर यात्रा की शुरूआत तभी सम्भव है जब वस्तुस्वरूप का, स्व-पर के भेद का निर्णय करने की दिशा में उद्यम करता है, यह निश्चय करता है कि कषाय का अभाव करना है, निज स्वभाव को प्राप्त करना है और इनके हेतु खोज करना है कि स्वभाव को प्राप्त करने वाला और कषाय का नाश करने वाला कौन है ? अब उसके लिये वही परमात्मा-देव है जो कषाय से रहित है और स्वभाव को प्राप्त किया है, वहीं पूजने योग्य है, वही साध्य है। वही शास्त्र है जो कषाय के नाश और स्वभाव की प्राप्ति का उपदेश दे, और वे ही गुरु हैं जो इस कार्य में लगे हुए हैं। इनके अतिरिक्त किन्हीं ऐसे तथाकथित देव, शास्त्र, गुरु की संगति, पूजा आदि नहीं करता जिनसे कषाय की पुष्टि होती हो। इस प्रकार सही देव-शास्त्र-गुरु का निर्णय करता है और उनके अवलम्बन से अपने स्वरूप को जानने का उद्यम करता है। यह पुरुषार्थ कोई भी व्यक्ति, स्त्री, पुरुष, वृद्ध, जवान यहां तक कि पशु-पक्षी जो मन सहित है, कर सकता है। ४.२ चौथा गुणस्थान
सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के माध्यम से अपने स्वरूप को स्पर्श करने का पुरुषार्थ करते हुए जब यह जीव निर्णय करता है कि मैं शरीर से भिन्न एक अकेला चेतन हूँ, और मेरी पर्याय में होने वाले रागादि भाव, जिनके कारण मैं दुःखी हूं, मेरे स्वभाव नहीं अपितु विकारी भाव हैं, अनित्य हैं, नाशवान हैं-- जब यह शरीर और रागादि से भिन्न अपने ज्ञाता-स्वरूप को देख पाता है- तो पहले से चौथे, अविरत सम्यग्दृष्टि नामक
नोट: दूसरा-तीसरा गुणस्थान चौथे से गिरने की अवस्था में होते है।
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