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अहंकार पैदा होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि अहंकार का तो आधार ही शरीरादि शुभ - अशुभ भाव और पुण्य पाप का फलरूप परपदार्थों में अपनेपने की मिथ्या मान्यता है। तब मैं गृहस्थ हूं अथवा मुनि हूं, इस प्रकार की पर्याय में अहंबुद्धि कैसे हो सकती है ?
चेतना के स्तर पर यह ज्ञान दर्शन के अतिरिक्त कुछ कर ही नहीं सकता। तब फिर पर को सुखी - दुःखी करने के कर्ता होने का मिथ्या अहंकार कहाँ से हो सकता है ?
शरीर के स्तर पर तो कोई इष्ट है और कोई अनिष्ट । परन्तु चेतना के स्तर पर न कोई इष्ट है, न अनिष्ट । अतः राग-द्वेष करने का कोई कारण ही नही रह जाता क्योंकि इष्ट- अनिष्ट वस्तु नहीं है। इष्ट-अनिष्टपना दिखाई देना यह हमारा दृष्टिदोष है।
सुख-दुःख या तो दूसरों के कारण होता है या पुण्य पाप से होता है. पहले तो ऐसा मानता था। अब समझ में आया कि दुःख तो अपनी कषाय से होता है और सुख कषाय के अभाव से, अतः सुखी होने के लिए कषाय के अभाव का उपाय करता है।
पहले मानता था कि कषाय दूसरों की वजह से होती है या कर्मोदय के कारण होती है। अब समझ में आया कि कषाय होने में समूची जिम्मेदारी मेरी अपनी है। कोई निमित्त कषाय नहीं कराता, और न ही निमित्त की वजह से कषाय होती है, बल्कि जब पर को निमित्त बनाकर मैं स्वयं ही कषायरूप परिणमन करता हूँ तो उपचार से ऐसा कह दिया जाता है कि पर ने कषाय कराई । परन्तु ऐसा कथन मात्र उपचार है और वस्तुतः असत्य है । निमित्त न तो कोई कार्य करता है, न कार्य कराता है, अपितु हम ही निमित्त का अवलम्बन लेकर अपना कार्य करते हैं ।
राग से बंध होता है- अशुभ भावों से पाप का और शुभ भावों से पुण्य का । तथा शुद्ध भावों से कर्मों का नाश होता है, इस प्रकार की सम्यक मान्यता रखता है।
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