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परिशिष्ट १.०८
श्रावक धर्म
सम्यकदर्शन तथा सम्यग्ज्ञान के साथ सम्यकचारित्र का पालन करते ही संसारी जीव के लिए मोक्ष मार्ग प्रशस्त होता है। यदि किसी कारणवश वह महाव्रत अंगीकार न कर सके, तो उसे श्रावक धर्म अर्थात देशसंयम का अवश्य पालन करना चाहिए। सम्यकदर्शन व सम्यग्ज्ञान का पालन करते हुए वह शुभ-अशुभ भावों अर्थात राग-द्वेष तथा शरीर से भिन्न स्वयं को ज्ञानरूप देखता है। आत्म अनुभव होने लगता है। किन्तु आत्म बल की अभी कमी होने के कारण वह उस ज्ञान-स्वभाव में ठहरना चाहकर भी ठहर नहीं पाता है। यह चूंकि पूर्व संस्कारों के कारण से है, इसलिए वह इन पूर्व संस्कारों को तोड़ने के लिए नये संस्कार पैदा करता है। वह मद्य, मांस, मधु एवं पञ्च उदम्बर फलों (बड़, पीपल, पाकर, कठूमर, अजीर) का यावज्जीवन त्याग करता है। सप्त व्यसन (जुआ खेलना, मांस भक्षण, शराब पीना, शिकार खेलना, चोरी करना, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन) का यावज्जीवन काम करता है। निष्ट अति जिनेन्द्र नगवान के दर्शन करता है, अभक्ष्यादि का त्याग करता है, रात्रि भोजन का त्याग करता है, पानी छानकर पीता है। दैनिक छ: आवश्यक कर्म (देव पूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप अर्थात इच्छानिरोध और दान) करता है। वह वैराग्य भावनाओं (बारह भावनायें-- अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आश्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म) का चिन्तवन करता है तथा अपने चारित्र को उत्तरोत्तर सुधार की ओर ले जाता है। २.० आत्मा के स्तर पर वह पाता है कि मैं एक अकेला, अनन्त गुणों का पिण्ड, चैतन्य तत्त्व हूँ, मेरा न तो जन्म है और न मरण, न मैं मनुष्य-तिर्यञ्च-देव-नारकी हूँ और न ही स्त्री-पुरुष नपुंसक, न मैं धनिक-निर्धन, न मैं मूर्ख-बुद्धिमान हूँ और न पर पदार्थों के संयोग- वियोग मुझे सुखी-दुःखी कर सकते हैं। आत्म-दर्शन के साथ होने वाली सम्यक-धारणायें
जब जीव इस प्रकार अपने चैतन्य स्वभाव का अनुभवन करता है, तब
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