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साधु के अर्थ को स्पष्ट करते हुए नियमसार में कहते हैं
वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणासयारत्ता । णिग्गंथा णिम्मोहा साहू एदेरिसा होंति । ।
अर्थ- जो व्यापार से सर्वथा रहित हैं, चार प्रकार की आराधनाओं में सदा लीन रहते हैं, परिग्रह से रहित हैं तथा निर्मोही हैं ऐसे साधु होते हैं । मुनियों के सामान्यतया चार भेद होते हैं। प्रथम तो वे सामान्य मुनि होते हैं जो कि अपने मूलगुणों का पालन करते हैं। दूसरे मुनि वे हैं जो मूलगुणों के साथ उत्तर गुणों का भी पालन करते हैं। तीसरे मुनि वे हैं जो मूल गुणधारी हैं, उत्तरगुणों से शून्य हैं किन्तु सिद्धान्त के विशेषवेत्ता हैं और चौथे मुनि वे हैं जो मूलगुण और उत्तरगुणों का निर्दोष पालन करते हैं और सिद्धान्त के वेत्ता भी हैं ।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धारण करने वालों का सुकीर्तिरूपी जल संसाररूपी मैल को नष्ट करता है। वे इस रत्नत्रय के धारण करने से शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं । जगत् का हित करने वाली, अहित - नाशक, संशय को दूर करने वाली, कर्ण प्रिय तथा भ्रमरूपी रोगों को हरने वाली मुनियों की वाणी चन्द्रमा की चाँदनी के समान निर्मल एवं अमृतमयी होती है ।
संदर्भ
द्रव्य संग्रह - श्री मन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त देव द्वारा विरचित ।
पद्मनन्दि पंचविंशति - आचार्य पद्मनन्दि कृत ।
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( २ )
भक्ति की शक्ति बढ़ी, निज गुण दे प्रगटाय । लौकिक की तो बात क्या, शिव सुख दे दर्शाय ।। जिनवर की भक्ती जो करे, मन वच तन कर लीन । इस भव में दुख ना लहै, ना भय धरे नवीन ||
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