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अर्थात- जो रत्नत्रय से संयुक्त है, जो जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गए पदार्थों का उपदेश करने वाले हैं, शूरवीर हैं, परिषह आदि के सहने में समर्थ हैं तथा निःकांक्षित भाव से सहित हैं, ऐसे उपाध्याय होते हैं।
ग्यारह अंग- (१) आचारांग (२) सूत्रकृतांग (३) स्थानांग (४) समवायांग (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग (६) ज्ञातृकथांग (७) उपासकाध्ययनांग (८) अंतकृद्दशांग (६) अनुत्तरोत्पाददशांग (१०) प्रश्नव्याकरणांग (११) विपाकसूत्रांग ।
____ चौदह पूर्व- (१) उत्पादपूर्व (२) अग्रायणीयपूर्व (३) वीर्यानुवादपूर्व (४) अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व (५) ज्ञानप्रवाद पूर्व (६) कर्मप्रवाद पूर्व (७) सत्यप्रवाद पूर्व (८) आत्मप्रवाद पूर्व (६) प्रत्याख्यान पूर्व (१०) विद्यानुवाद पूर्व (११) कल्याणवाद पूर्व (१२) प्राणावाय पूर्व (१३) क्रियाविशाल पूर्व और (१४) लोकबिंदुसार पूर्व।
यद्यपि काल दोष से आज इन गुणों से युक्त कोई भी उपाध्याय परमेष्ठी नहीं है, फिर भी वे नाम-स्थापना से पूज्य हैं। अतः आज जो वर्तमान में आगम ग्रन्थों को पढ़ने-पढ़ाने में समर्थ हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी हैं। साधु परमेष्ठी
जो अट्ठाईस मूलगुण अर्थात पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रिय-निरोध, छह आवश्यक और सात अन्य गुणों का पालन करते हैं, वे साधु परमेष्ठी होते हैं।
पांच महाव्रत- अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत, परिग्रहत्याग महाव्रत।
पांच समिति- ईर्या सभित्ति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान-निक्षेपण समिति. उत्सर्ग समिति।
पांच इन्द्रिय-निरोध- स्पर्शनेन्द्रिय निरोध, ररानेन्द्रिय निरोध, घ्राणेन्द्रिय निरोध, चक्षु-इन्द्रिय निरोध, कर्णेन्द्रिय निरोध ।
छह आवश्यक- सामायिक, स्तुति, वंदना, प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग।
सात अन्य गुण- केशलौंच, अचेलकत्व, अस्नानवत, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थिति- भोजन और एक भक्त (एक दफा भोजन)।
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