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सिद्ध परमेष्ठी
जिन्होंने ज्ञानावरणी कर्म के क्षय से अनन्त ज्ञान दर्शनावरणी कर्म के क्षय से अनन्त दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय से अनन्त सुख एवम् क्षायिक सम्यक्त्व अन्तराय कर्म के क्षय से अनन्त वीर्य, वेदनीय कर्म के क्षय से अव्याबाधत्व, आयु कर्म के क्षय से अवगाहनत्व, नाम कर्म के क्षय से सूक्ष्मत्व (जिसको मात्र केवलज्ञानी ही देख सकते हैं) और गोत्र कर्म के क्षय से अगुरुलघुत्व गुण प्राप्त कर लिया है, वे सिद्ध परमेष्ठी हैं । ये लोकाग्र भाग पर स्थित हैं और आगे धर्म द्रव्य के अभाव में उससे ऊपर नहीं गये हैं।
इन सिद्धों के ज्ञान में समस्त अलोकाकाश एवम् तीनों लोक आकाश में स्थित एक नक्षत्र के समान स्पष्ट प्रतिभासित होते हैं एवम् अपरिमित तेज के धारी हैं। यह सिद्धात्मारूपं तेज विश्व को देखता और जानता है, आत्ममात्र से उत्पन्न आत्यन्तिक सुख को प्राप्त करता है। वह सिद्ध ज्योति चूंकि अतीन्द्रिय है अतएव सूक्ष्म कही जाती है । परन्तु उसमें अनन्तानन्त पदार्थ प्रतिभासित होते हैं, अतः इस अपेक्षा से वह स्थूल भी कही जाती है। वह पर (पुद्गलादि) द्रव्यों के गुणों से रहित होने के कारण शून्य तथा अनन्त चतुष्टय (अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख अनन्त वीर्य) से संयुक्त होने के कारण परिपूर्ण भी है। पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा वह परिणमनशील होने से उत्पाद - विनाशशाली तथा द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा विकार रहित होने से नित्य भी मानी जाती है । स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा वह सद्भावस्वरूप तथा पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अभावस्वरूप भी है। वह अपने स्वभाव को छोड़कर अन्यरूपवर्ती न होने के कारण एक तथा अनेक पदार्थों के स्वरूप को प्रतिभासित करने के कारण अनेक स्वरूप भी हैं। ऐसी उस सिद्ध ज्योति का चिन्तन सभी नहीं कर पाते, किन्तु निर्मल ज्ञान के धारक कुछ विशेष योगीजन ही उसका चिन्तन कर सकते हैं ।
सिद्ध परमेष्ठी को 'निकल--परमात्मा' भी कहते हैं क्योंकि निकल का अर्थ हैनष्ट कर दिए हैं अपने आठों कर्मों को तथा पांचों शरीरों को जिन्होंने, उन्हें निकल परमात्मा कहते हैं ।
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