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आचार्य परमेष्ठी
जो मुनि ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार तपाचार और वीर्याचार का स्वयं आचरण करते हैं और दूसरे साधुओं से आचरण करवाते हैं, जो भव्य जीवों को शिक्षा, दीक्षा, प्रायश्चित्त आदि देते हैं, जो मेरु के सामन निश्चल, पृथ्वी के समान सहनशील, समुद्र के समान दोषों को बाहर फेंक देने वाले और सात प्रकार के भयों (इहलोकभय, परलोकभय, मरणभय, वेदनाभय, अकस्मातभय अरक्षाभय, और अगुप्ति भय) से रहित हैं, जो शिष्यों के संग्रह और उन पर अनुग्रह करने में कुशल हैं, वे ही आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं। अथवा जो छत्तीस मूलगुणों का पालन करते हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं ।
दर्शनाचार - सम्यक्त्व को मलिन करने वाले पच्चीस दोषों से रहित श्रद्धान करना दर्शनाचार है।
ज्ञानाचार- निःशंकित आदि आठ अंगों सहित सम्यग्ज्ञान की आराधना करना ज्ञानाचार है।
चारित्राचार - प्राणिवध, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पांच पापों का सर्वथा त्याग कर देना चारित्राचार है ।
तपाचार- अनशनादि बारह प्रकार के बाह्य एवं आभ्यन्तर तपों का अनुष्ठान करना तपाचार है ।
वीर्याचार - अपने बल और वीर्य को न छिपाकर जो साधु यथोक्त आचरण में अपने आपको लगाता है अर्थात् कायरता प्रकट न करके हमेशा चारित्र का पालन करने में तथा तप के पालन में उत्साहित रहता है वही वीर्याचार है 1
आचार्य के छत्तीस गुण हैं- आचारवत्त्व आदि आठ गुण, बारह तप, दस स्थितिकल्प और छह आवश्यक, ये छत्तीस गुण होते हैं।
आचारवत्त्व आदि आठ गुण- आचारवत्व, आधारवत्त्व, व्यवहारपटुता, प्रकुर्वित्व, आयापायदर्शिता, उत्पीलक, अपरिस्रावणी और सुखावह ।
१२ तप-- अनशन, अवमोदर्य, रस परित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, कायक्लेश, विविक्तशय्यासन, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग ये बारह तप हैं ।
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