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पञ्च परमेष्ठी का लक्षण
अरिहन्त परमेष्ठी
जिन्होंने दर्शनावरण, ज्ञानावरण, मोहनीय और आयु इन चार घातिया कर्मों को समूल नष्ट कर दिया है तथा जो अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य सहित हैं, जो सप्तधातु से रहित परमौदारिक शरीर सहित हैं तथा अठारह दोषों से रहित शुद्ध- आत्मा हैं, ऐसे अरिहंत परमेष्ठी कहलाते हैं। वही ध्यान-योग्य हैं।
घातिया कर्म - जो आत्मा के अनुजीवी गुणों का घात करते हैं, उन्हें घातिया कर्म कहते हैं। ये चार प्रकार के होते हैं। इन चार घातिया कर्मों के नष्ट होने से अनन्त चतुष्टय प्राप्त होते हैं अर्थात् ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अनन्त ज्ञान, दर्शनावरण कर्म के क्षय से अनन्त दर्शन, मोहनीय कर्म के नष्ट होने से अनन्त सुख एवं क्षायिक सम्यक्त्व और अन्तराय कर्म के क्षय होने से अनन्त वीर्य की प्राप्ति होती है। अनन्त दर्शन और सम्यक्त्व में यह अन्तर है कि अनन्त दर्शन में केवल सम्यग्दर्शन है, जबकि मोहनीय कर्म के नष्ट होने से जो सम्यक्त्व गुण प्राप्त हुआ है उस सम्यक्त्व में चारित्र भी गर्भित है। परमौदारिक शरीर
जिस शरीर में से शरीर के आश्रित रहने वाले अनन्त निगोदिया जीव पूर्णरूपेण निकल गए हैं और जो स्फटिक मणि के समान शुद्ध निर्मल हो गया है उस शरीर को परमौदारिक शरीर कहते हैं। अठारह दोष
क्षुधा, प्यास, रोग, जन्म, जरा, मृत्यु, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, रति, निद्रा, विस्मय, मद, स्वेद और खेद - इन अट्ठारह दोषों को जिसने नष्ट कर दिया है, वही अरिहन्त परमेष्ठी बन सकता है।
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