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________________ तो मन को कैसे जिएँ ? मन को जिएँ मित्र की तरह, मित्र मित्र होता है जो संकटों में सहयोगी होता है । जो सँसार में सहयोगी हो सकता है, वह मुक्ति में, परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति में कैसे नहीं सहायक होगा। जो जल कीचड़ का कारण होता है, वही जल कीचड़ की शुद्धि में भी कारण होता है। जो मन पाप में कारण है, वही मन पुण्य में भी कारण बन सकता है- जीवों पर दया करने में साधु एवं गुणी जनों की वैयावृत्य करने में, दीन दुःखी प्राणियों की सेवा करने में, आत्म शुद्धि में । मन को कैसे जिएँ ? मन को सम्यक् ध्यान के संग जिएँ, आत्म ध्यान अथवा परमात्म ध्यान लगायें । ध्यान से मन एकाग्र होता है। नियमित ध्यानाभ्यास करें। ध्यान करने सहज ही बैठ जाएं, नासाग्र दृष्टि करके सहज बैठें। केवल आती-जाती श्वास को देखें- श्वास आ रही है, श्वास जा रही है.. केवल साक्षी भाव से मन को नासाग्र पर केन्द्रित करके मात्र श्वास के गमन - निर्गमन को देखें। जैसे द्वार पर संतरी खड़ा होता है, वह एक ही बात का ध्यान रखता है कि कौन भीतर आ रहा है, कौन बाहर जा रहा है। तुम भी पूरी सजगता से श्वास की प्रेक्षा करो, इससे लाभ यह होगा कि तुम्हारा मन तुम्हारे संग हो लेगा । मन को कैसे जिएँ ? मन को जीना है तो विवेक रूपी अंकुश हो- यह आवश्यक है, संयम हो- यह आवश्यक है। संकल्प शक्ति (will power) मजबूत है, तो कुछ भी असम्भव नहीं है । तुम तो अनन्त की सम्भावना हो, अपनी क्षमताओं को पहचानो और संयमपूर्ण जीवन से मन के चमन को महकादो, मन में संयम की सुवास होगी तो मञ्जिल भी पास होगी । ( पूज्य मुनि श्री १०८ तरूण सागर जी के भोपाल में जामा मस्जिद के सामने सार्वजनिक सभा में दिये गये एक मननीय प्रवचन से संक्षिप्त सारांश साभार उद्धृत) १.२०८
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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