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परिशिष्ट १.०६ मन को कैसे जिएँ ?
मन को जीतने, मन को मारने का कहना जितना सरल है, उसका क्रियान्वयन करना उतना ही कठिन है। मन को जितना रोको, उतना ही भागेगा। किन्तु यदि इसको खुला छोड़ दो और मात्र साक्षी भाव से देखो तो पाओगे कि ढीठ सा खड़ा है, क्योंकि निषेध में आकर्षण होता है। मन को कहो कि कूद जा, तो नहीं कूदेगा- मन को कहो कि मत कूदो, तो जरूर कूदेगा। इसलिए यह ख्याल दिल से निकाल दो कि मन को जीतना है, बल्कि इसके लिए संकल्पित हो जाओ कि मन को जीना है।
मन को कैसे जिएँ ? इसके लिए इसका स्वभाव जानना आवश्यक है। मन खंभे से बंधे उस नटखट बन्दर की तरह हैं जो कभी शान्त नहीं बैठता, उछल-कूद करता ही रहता है। मन उस मृग की तरह है जो तृण से आच्छादित खाई को देखकर खाने के लोभ में दौड़ता है और उसमें गिर जाता है। मन चिकनी मछली की तरह है जो पकड़ में नहीं आती, हाथों से बार-बार फिसल जाती है। मन इतना चंचल है कि जिसका कोई सानी नहीं। कदाचित् समुद्र की लहरें गिनना आसान हो, किन्तु मन की गति को मापना सहज सम्भव नहीं है।
मन विषय वासनाएँ, इन्द्रिय-जनित सुख एवम् भोग विलास जैसे बहिर्मुखी. जन्म-मरणरूपी भयानक संसार वृद्धि कारणभूत. क्षुद्र एवं अधोगामी विषयों की ओर भागता है। लेकिन इस प्रवृत्ति को ऊर्धारोहणता की ओर, मनुष्यता के चरम विकास, आत्मोन्नति तथा परमात्म-तत्त्व प्राप्ति जैसे अन्तर्मुखी एवं महान लक्ष्य की ओर परिवर्तित किया जा सकता है। मंत्र के द्वारा इस प्रकार का परिवर्तन लाया जा सकता है। मंत्र मन की मलिनता को चित्त से दूर करता है, अत: मन को मंत्र का संग देना आवश्यक है। मंत्र से ही मन के दुष्प्रवृत्ति की मृत्यु होती है और मंत्र से ही मन को अमृत स्वरूप जीवन मिलता है। कौन सा मंत्र ?
अध्यात्म का मंत्र ! अध्यात्म से मन का सौन्दर्य खिलता है। अध्यात्म की शिक्षा, अध्यात्म की चर्चा मन को ऊर्ध्वगामी बनाती है, जबकि भौतिकता से मन अधोगामी
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