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प्रथम समय में ग्रहीत द्रव्य के स्वरूप से रहित है, इस तरह के पुद्गल द्रव्य को ही प्रायः करके जीव ग्रहण करता है।
भावार्थ- यद्यपि यह नियम नहीं है कि इस ही तरह के पुदगल को जीव ग्रहण करे तथापि बहुधा इस ही तरह के पुद्गल को ग्रहण करता है, क्योंकि यह द्रव्य क्षेत्र काल भाव से संस्कारित है।
द्रव्य परिवर्तन के उक्त चार भेदों का इस गाथा में निरूपण किया हैअगहिदमिस्सं गहिदं, मिस्समगहिदं तहेव गहिदं च। मिस्सं गहिदमगहिदं, गहिदं मिस्सं अगहिदं च ।। २।।
अग्रहीतं मिश्र ग्रहीतं मिश्रमग्रहीतं तथैव ग्रहीतं च। मिश्र ग्रहीतमग्रहीतं ग्रहीतं मिश्रमग्रहीतं च।। २।
अर्थ- पहला अग्रहीत मिश्र ग्रहीत, दूसरा मिश्र अग्रहीत ग्रहीत, तीसरा मिश्र ग्रहीत अग्रहीत, चौथा ग्रहीत मिश्र अग्रहीत, इस तरह चार प्रकार से पुद्गलों का ग्रहण हो जाने पर जब परिवर्तन के प्रारम्भ के समय में जिनका ग्रहण किया था उन्हीं पुद्गलों और उसी रूप में ग्रहण होता है तब एक कर्मद्रव्यपरिवर्तन पूरा होता है। नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन और कर्मद्रव्यपरिवर्तन दोनों के समूह को ही द्रव्य परिवर्तन कहते हैं
और इसमें जितना काल लगता है वही द्रव्यपरिवर्तन का काल है। (ख) क्षेत्र परिवर्तन
यहां पर प्रकरण के अनुसार शेष चार परिवर्तनों का भी स्वरूप लिखते हैं। क्षेत्र परिवर्तन के दो भेद हैं- एक स्वक्षेत्र परिवर्तन दूसरा परक्षेत्र परिवर्तन। एक जीव सर्व जघन्य अवगाहनाओं को जितने उसके प्रदेश हों उतनी बार धारण करके पीछे क्रम से एक-एक प्रदेश अधिक अधिक की अवगाहनाओं को धारण करते-करते महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यन्त अवगाहनाओं को जितने समय में धारण कर सके उतने काल समुदाय को एक स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं। कोई जघन्य अवगाहना का धारक सूक्ष्म निगोदिया लब्यपर्याप्तक जीव लोक के अष्ट मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के अष्ट मध्य प्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ, पीछे वही जीव उस ही रूप से उस ही स्थान में दूसरी तीसरी बार भी उत्पन्न हुआ। इसी तरह घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य अवगाहना के जितने प्रदेश हैं उतनी बार उसी स्थान पर क्रम से उत्पन्न हुआ
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