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और श्वास के अठारहवें भागप्रमाण क्षुद्र आयु को भोग भोग कर मरण को प्राप्त हुआ । पीछे एक - एक प्रदेश के अधिक क्रम से जितने काल में सम्पूर्ण लोक को अपना जन्म क्षेत्र बना ले उतने काल समुदाय को एक परक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं ।
(ग) काल परिवर्तन -
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कोई जीव उत्सर्पिणी के प्रथम समय में पहली बार उत्पन्न हुआ, इस ही तरह दूसरी बार दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ, तथा तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में तीसरी बार उत्पन्न हुआ। इस ही क्रम से उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी के बीस कोड़ीकोड़ी अद्धा सागर के जितने समय हैं उनमें उत्पन्न हुआ, तथा इस ही क्रम से मरण को प्राप्त हुआ, इसमें जितना काल लगे उतने काल समुदाय को एक काल परिवर्तन कहते हैं ।
(घ) भव परिवर्तन -
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कोई जीव दस हजार वर्ष के जितने समय हैं उतनी बार जघन्य दस हजार वर्ष की आयु से प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ, पीछे एक-एक समय के अधिक क्रम से नरक सम्बन्धी तेतीस सागर की आयु को क्रम से पूर्ण कर, अन्तर्मुहूर्त के जितने समय हैं उतनी बार जघन्य अन्तर्मुहूर्त की आयु से तिर्यंचगति में उत्पन्न होकर यहां पर भी नरकगति की तरह एक एक समय के अधिक क्रम से तिर्यग्गति सम्बन्धी तीन पल्य की उत्कृष्ट आयु को पूर्ण किया। पीछे तिर्यग्गति की तरह मनुष्यगति को पूर्ण किया, क्योंकि मनुष्यगति की भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त की तथा उत्कृष्ट तीन पल्य की आयु है । मनुष्यगति के बाद दस हजार वर्ष के जितने समय हैं उतनी बार जघन्य दस हजार वर्ष की आयु से देवगति में उत्पन्न होकर पीछे एक-एक समय के अधिक्रम से इकतीस सागर की उत्कृष्ट आयु को पूर्ण किया, क्योंकि यद्यपि देवगति सम्बन्धी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर की है तथापि यहाँ पर इकतीस सागर ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि मिथ्यादृष्टि देव की उत्कृष्ट आयु इकतीस सागर ही होती है। और इन परिवर्तनों का निरूपण मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से ही है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि संसार में अर्धपुद्गल परिवर्तन का जितना काल है उससे अधिक काल तक नहीं रहता। इस क्रम से चारों गतियों में भ्रमण करने में जितना काल लगे उतने काल को एक भवपरिवर्तन का काल कहते हैं तथा इतने काल में जितना भ्रमण किया जाय उसको भव परिवर्तन कहते हैं ।
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