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नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन कहते हैं। तथा इरामें जितना काल लगे उसको नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन का काल कहते हैं।
इस तरह दूसरा कर्मपुदगलपरिवर्तन होता है। विशेषता इतनी ही है कि जिस तरह नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन में नोकर्मपुद्गलों का ग्रहण होता है, उस ही तरह यहाँ पर कर्मपुदगलों का ग्रहण होता है। कर्मों के ग्रहण में विभाग के समय आयु सहित आठ कमों का समयप्रबद्ध में ग्रहण हुआ करता है और त्रिभाग के सिवाय अन्य काल में आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों के ही योग्य कर्मपुद्गल द्रव्य का समयप्रबद्ध में ग्रहण होता है। किन्तु इस परिवर्तन के सम्बन्ध में आठ कर्मों के योग्य ही समयप्रबद्ध कर्मपुद्गल द्रव्य का ग्रहण करना चाहिए। दूसरी बात यह है कि जिस तरह नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन के वर्णन में ग्रहीत द्रव्य की निर्जरा दूसरे ही समय से होनी बताई गई है वैसा यहाँ नहीं है। मद्रव्यपरिवर्तन में ग्रहीत समयप्रबद्धरूप कर्मद्रव्य की निर्जरा का प्रारम्भ एक आवली काल के अनन्तर होना कहना और समझना चाहिये, क्योंकि कर्मों के ग्रहण के समय से लेकर एक आवली काल तक उनकी निर्जरा न तो होती है और न हो सकती है। इन दो बातों को छोड़कर और परिवर्तन के क्रम में कुछ भी विशेषता नहीं है। जिस तरह के चार भेद नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन में होते हैं उस हो तरह कर्मद्रव्यपरिवर्तन में भी चार भेद होते हैं। इन चार भेदों में भी अग्रहीत ग्रहण का काल सबसे अल्प है, इससे अनंतगुणा काल मिश्र ग्रहण का है। इससे भी अनंतगुणा ग्रहीत ग्रहण का जघन्य काल है, इससे अनंतगुणा ग्रहीत ग्रहण का उत्कृष्ट काल है, क्योंकि प्रायः करके उसे ही पुदगलद्रव्य का ग्रहण होता है कि जिसके साथ द्रव्य क्षेत्र काल भाव का संस्कार हो चुका है। इस ही अभिप्राय से यह सूत्र कहा भी है कि
सुहमट्टिदिसंजुत्तं, आसण्णं कम्मणिज्जरामुक्कं । पाऐण एदि गहणं, दव्यमणिद्दिसंठाणं ।। १।। सूक्ष्मस्थितिसंयुक्तमासन्नं कर्मनिर्जरामुक्तम् । प्रायेणेति ग्रहणं द्रव्यमनिर्दिष्टसंस्थानम् ।।१।।
अर्थ- जो अल्पस्थिति से युक्त है, जीव प्रदेशों पर ही स्थित है तथा निर्जरा के द्वारा कर्मरूप अवस्था को छोड़ चुका है, और अनिर्दिष्ट संस्थान है अर्थात विवक्षित
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