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________________ बार ग्रहीत का ग्रहण होता है। इसके बाद फिर उस ही तरह अनन्त बार अग्रहीत का ग्रहण हो चुकने पर एक बार मिश्र का ग्रहण और मिश्र ग्रहण के बाद फिर अनन्त बार अग्रहीत का ग्रहण होकर एक बार मिश्र का ग्रहण होता है। तथा मिश्र का ग्रहण अनन्त बार हो चुकने पर अनन्त बार अग्रहीत का ग्रहण करके एक बार फिर ग्रहीत का ग्रहण होता है। इस ही क्रम से अनन्त बार ग्रहीत का ग्रहण होता है। यह अभिप्राय सूचित करने के लिये ही प्रथम पंक्ति में पहले तीन कोठों के समान दूसरे भी तीन कोठे दिये हैं । अर्थात् इस क्रम से अनन्त बार ग्रहीत का ग्रहण हो चुकने पर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन के चार भेदों में से प्रथम भेद समाप्त होता है। इसके बाद दूसरे भेद का प्रारम्भ होता है। यहाँ पर अनन्त बार मिश्र का ग्रहण होने पर एक बार अग्रहीत का ग्रहण, फिर अनंत बार मिश्र का ग्रहण होने पर एक बार अग्रहीत का ग्रहण इस ही क्रम से अनन्त बार अग्रहीत का ग्रहण होकर अनंन्त बार मिश्र का ग्रहण करके एक बार ग्रहीत का ग्रहण होता है। जिस क्रम से एक बार ग्रहीत का ग्रहण किया उस ही क्रम से अनन्त बार ग्रहीत का ग्रहण हो चुकने पर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन का दूसरा भेद समाप्त होता है। इसके बाद तीसरे भेद में अनन्त बार मिश्र का ग्रहण करके एक बार ग्रहीत का ग्रहण होता है, फिर अनंत बार मिश्र का ग्रहण करके एक बार ग्रहीत का ग्रहण । इस क्रम से अनंत बार ग्रहीत का ग्रहण हो चुकने पर अनंत बार मिश्र का ग्रहण करके एक बार अग्रहीत ग्रहण होता है। जिस तरह एक बार अग्रहीत का ग्रहण किया उस ही तरह अनंत बार अग्रहीत का ग्रहण होने पर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन का तीसरा भेद समाप्त होता है। इसके बाद चौथे भेद का प्रारम्भ होता है। इसमें प्रथम ही अनन्त बार ग्रहीत का ग्रहण करके एक बार मिश्र का ग्रहण होता है, इसके बाद फिर अनन्त बार ग्रहीत का ग्रहण होने पर एक बार मिश्र का ग्रहण होता है । इस तरह अनन्त बार मिश्र का ग्रहण होकर पीछे अनंत बार ग्रहीत ग्रहण करके एक बार अग्रहीत का ग्रहण होता है । जिस तरह एक बार अग्रहीत का ग्रहण किया उस ही क्रम से अनन्त बार अग्रहीत का ग्रहण हो चुकने पर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन का चौथा भेद समाप्त होता है। इस चतुर्थ भेद के समाप्त हो चुकने पर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन के प्रारम्भ के प्रथम समय में वर्ण गन्ध आदि के जिस भाव से युक्त जिस पुद्गल द्रव्य को ग्रहण किया था उस ही भाव से युक्त उस शुद्ध ग्रहीत रूप पुद्गल द्रव्य को जीव ग्रहण करता है। इस सबके समुदाय को १. १९६
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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