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________________ परिशिष्ट १.०४ पंच परावर्तन काल (गोम्मटसार--जीव काण्ड से उद्धृत) १- भव्य मार्गणा जिन जीवों की अनन्त चतुष्ट्य सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों, उनको भवसिद्ध कहते हैं। जिनमें इन दोनों में से कोई भी लक्षण घटित न हो, उन जीवों को अभव्यसिद्ध कहते हैं। भाषाई.. कितने ही भव्य ऐसे हैं जो मुक्ति प्राप्ति के योग्य हैं, परन्तु कभी भुक्तं न होंगे; जैसे बन्ध्यापने के दोष से रहित स्त्री में पुत्रोत्पत्ति की योग्यता तो है, परन्तु उसके कभी निमित्त न मिलने के कारण, कभी पुत्र उत्पन्न नहीं होगा। इसके सिवाय कोई भव्य ऐसे हैं जो नियम से मुक्त होंगे। जैसे बन्ध्यापने के दोष से रहित स्त्री के निमित्त मिलने पर नियम से पुत्र उत्पन्न होगा। इस तरह योग्यता भेद के कारण भव्य दो प्रकार के हैं। इन दोनों योग्यताओं से जो रहित हैं, उनको अभव्य कहते हैं। जैसे बन्ध्या स्त्री के निमित्त मिले चाहे न मिलै, परन्तु पुत्र उत्पन्न नहीं हो सकता है। जिनमें मुक्ति प्राप्ति की योग्यता है, उनको भव्य सिद्ध कहते हैं। इस अर्थ को दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं जो जीव अनन्त चतुष्टयरूप सिद्धि की प्राप्ति के योग्य है, उनको भवसिद्ध कहते हैं। किन्तु यह बात नहीं है कि इस प्रकार के जीवों का कर्ममल नियम से दूर हो ही, जैसे कनकोपलका। भावार्थ- ऐसे भी बहुत से कनकोपल हैं जिनमें कि निमित्त मिलाने पर शुद्ध स्वर्ण रूप होने की योग्यता तो है, परन्तु उनकी इस योग्यता की अभिव्यक्ति कभी नहीं होगी। अथवा जिस तरह अहमिन्द्र देवों में नरकादि में गमन करने की शक्ति है परन्तु उस शक्ति की अभिव्यक्ति कभी नहीं होती। इस ही तरह जिन जीवों में अनन्त चतुष्टय को प्राप्त करने की योग्यता है, परन्तु उनको वह कभी प्राप्त नहीं होगी। उनको भी भव सिद्ध कहते हैं। ये जीव भव्य होते हुए भी सदा संसार में ही रहते हैं।
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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