________________
जिनका पांच परिपतनरूप अनन्त संसार सर्वथा छूट रचा है और इसीलिये जो मुक्ति सुख के भोक्ता हैं, उन जीवों को न तो भव्य समझना और न अभव्य समझना चाहिये, क्योंकि अब उनको कोई नवीन अवस्था प्राप्त करना शेष नहीं रही है। इसलिये वे भव्य भी नहीं हैं और अनन्त चतुष्टय को प्राप्त हो चुके हैं, इसलिये अभव्य भी नहीं हैं।
भावार्थ- जिसमें अनन्त चतुष्टय के अभिव्यक्त होने की योग्यता ही न हो उसको अभव्य कहते हैं। अतः मुक्त जीव अभव्य भी नहीं है; क्योंकि इन्होंने अनन्त चतुष्टय को प्राप्त कर लिया हैं और "भवितुं योग्या भव्या" इस निरुक्ति के अनुसार भव्य उनको कहते हैं जिनमें कि अनन्त चतुष्टय को प्राप्त करने की योग्यता है। किन्तु अब वे उस अवस्था को प्राप्त कर चुके, इसलिये उनके भव्यत्व की योग्यता का परिपाक हो चुका, अतएव अपरिपक्व अवस्था की अपेक्षा से भव्य भी नहीं है।
भव्यमार्गणा में जीवों की संख्या बताते हैंअवरो जुत्ताणतो, अभव्वरासिस्स होदि परिमाणं। तेण विहीणो सष्यो संसारी भव्वरासिस्स ।।५६० ।।
अर्थ- जघन्ययुक्तानन्त प्रमाण के बराबर अभव्य राशि है और सम्पूर्ण संसारी जीव राशि में से अभव्य राशि का प्रमाण घटाने पर जो शेष रहे, उतना ही भव्य राशि का प्रमाण है। २- पंच परावर्तन (१) द्रव्य परिवर्तन
भव्य राशि बहुत अधिक है और अभव्य राशि बहुत थोड़ी है। भव्य जीव मुक्त होने तक तथा अभव्य जीव सदा ही पांच परिवर्तन रूप संसार से युक्त ही रहते हैं। एक अवस्था से दूसरी अवस्था का प्राप्त होना इसको संसार परिवर्तन कहते हैं। इस संसार अर्थात् परिवर्तन के पाँच भेद हैं- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव। द्रव्य परिवर्तन के दो भेद हैं-- एक नोकर्मद्रव्य परिवर्तन, दूसरा कर्मद्रव्य परिवर्तन । यहां पर इन परिवर्तनों का क्रम से स्वरूप बताते हैं। किसी जीव ने, स्निग्ध रूक्ष वर्ण गन्धादि के तीव्र मन्द मध्यम भावों में से यथासम्भव भावों से युक्त औदारिकादि तीन शरीरों में से किसी शरीर सम्बन्धी तथा छह पर्याप्ति रूप परिणमने के योग्य पुदगलों को एक समय में
१.१९४