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अन्त में श्रीमद्देवाधिदेव श्री १००८ भगवान ऋषभदेव से अपने राग-द्वेषरूपी मल को दूर करने एवम् सम्यक्त्व की उपलब्धि के लिये उनके श्री चरणों में (परिशिष्ट १.११ के अनुसार) प्रार्थना करते हुए
एवम्
श्री मद्देवाधिदेव १००८ वर्द्धमान जिनेन्द्र से उनके श्री चरणों की भक्ति की प्रार्थना करते हुए उनसे विनती करता हूँ कि
जनम जनम प्रभु पाऊं तोहि,
यह सेवा - फल दीजै मोहि । कृपा तिहारी ऐसी होय,
जामन मरण मिटावो मोय ।।
जिनवाणी सेवकलखपतेन्द्र देव जैन
येषां न विद्या न तपो न दानं न ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति । ।
जिन (पुरुषों) में विद्या, तप, दान, ज्ञान, शील ( सदाचार ) गुण तथा धर्म नहीं है, वे पृथ्वी के ॥ भारस्वरूप पशु ही हैं, जो मनुष्य के रूप में विचरण करते हैं ।
- नीतिशतक (भर्तृहरि कृत )
१.१७६
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