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________________ अध्याय ६ प्रथम भाग का सारांश मङ्गलाचरण केवलणाण-दिणेसं, चोत्तीसादिसय -भूपि-संपण्णं। अप्प-सरूवम्मिठिदं, कुंथु-जिणेसं णमंसामि ।।१७।। संसारण्णव-महणं, तिहुवण-भवियाण सोक्ख संजणणं। संदरिसिय -सयलत्थं, अर-जिणणाहं णमंसामि ||१८|| भव्व-जण-मोक्ख-जणणं, मुणिदं देविंद-पणद-पय -कमलं। अप्प-सुहं संपत्तं, मल्लि-जिणेसं णमंसामि ।।१६।।। अर्थ- जो केवलज्ञान रूप प्रकाश युक्त सूर्य हैं, चौंतीस अतिशय रूप विभूति से सम्पन्न हैं और आत्म-स्वरूप में स्थित हैं, उन कुन्थु जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ ।।१७ ।। जो संसार समुद्र का मंथन करने वाले हैं और तीनों लोकों के भव्यजीवों को मोक्ष के उत्पादक हैं तथा जिन्होंने सकल पदार्थ दिखला दिये हैं, ऐसे अर जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ।।१८।। जो भव्य जीवों को मोक्ष-प्रदान करने वाले हैं, जिनके चरण-कमलों में मुनीन्द्रों और देवेन्द्रों ने नमस्कार किया है, आत्म सुख से सम्पन्न ऐसे मल्लिनाथ जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ ||१६ ।। . यह जीव अनादि काल से मोह रूपी मद में फंसने एवमं मिथ्यात्व (सम्यक्त्व का अभाव) के कारण चार गतियों की चौरासी लाख योनियों में अवर्चनीय सांसारिक दुःखों को भोग रहा है। जो जीव जन्म लेता है, उसका मरण निश्चित है; उसका धर्म के अतिरिक्त कोई शरण नहीं है; संसार के दुःख उसको भोगने ही पड़ते हैं; इसका कोई साथी नहीं होता क्योंकि यह अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरण को प्राप्त होता है; धन, सम्पत्ति, कुटुम्बीजन, मित्र आदि, यहां तक कि शरीर भी अपने नहीं होते; इसके शरीर में सर्वाधिक घृणित पदार्थ- मल, मूत्र आदि भरे होते हैं; मोहवश यह जीव कर्मों द्वारा पीड़ित होते हुए इस जगत अर्थात त्रिलोक में सर्वत्र जन्म-जन्म में घूमता १.१७३
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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