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________________ मैं अष्टाङ्ग सम्यक्दर्शन, अष्टाङ्ग सम्यग्ज्ञान एवम् त्रियोदश पूर्वक सम्यक् चारित्र पालन करने की भावना करता हूँ। मैं सम्यक दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना एवम् तपाराधना करने की भावना भाता हूँ। में सम्यक दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार एव् वीर्याचार पालन करने की भावना करता हूँ। मैं दर्शनविशुद्धि, विनय सम्पन्नता, शीलवतेष्वनतीचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, सक्तितस्तप साधु संगधि वैयावृत्य, अर्हदभक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना एवम् प्रवचन वात्सल्य नामक षोडसकारण भावनाओं का चिन्तवन करता हूँ। अन्त में मैं मरण के समय सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण की भावना करता हूँ। मुक्तक सोये चेतन को हर पल जगाते रहो, सप्त व्यसनों को मन से भगाते रहो। किस घड़ी काल आकर दबोचे हमें, मंत्र नवकार का गुनगुनाते रहो।। -मनोज जैन 'मथुर', भोपाल - . . 1 अभिषेक करने से पापों का प्रक्षालन होता है। परिणामों की विशुद्धि होती है।। -आचार्य श्री १०८ भरतसागर जी ! १.१७२
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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