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(घ) व्युपरत क्रिया निवृत्ति
अयोग नामक चौदहवें गुणस्थान के जिसका काल इतना है कि जितने समय में लघु पांच अक्षर अ इ उ ऋ लू का उच्चारण होता है, तब उपान्त्य समय में यह ध्यान प्रकट होता है। उपान्त्य समय में ७२ कर्म प्रकृतियां नष्ट हो जाती हैं और अन्त समय में शेष १३ कर्म प्रकृतियां नष्ट हो जाती है। इस गुणस्थान में मन, वचन, काय योगों से रहित होने के कारण यथाख्यात चारित्र अर्थात चारित्र की पूर्णता प्रगट होती है। श्वासोच्छवास का संचार और समस्त प्रदेशों की हलन-चलन क्रिया रुक जाती है।
इसके पश्चात जीव ऊर्ध्व गमन के द्वारा एक समय मात्र में निर्वाण को प्राप्त
हो जाता है। नोट- केवली भगवान का चरित्र अचिन्त्य है। राग, मोह, आकांक्षा, इच्छादि का सर्वथा
अभाव हो जाने के कारण, जो उपरोस सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति एवम् व्युपरत क्रिया निवृत्ति नामक शुक्लध्यान है वह केवल उपचार से है। अर्थात उनके यह स्वभावतः ही होता है तथा उसमें इच्छा आदि का सद्भाव नहीं है।
सन्दर्भ
१. २.
द्रव्य संग्रह - रचियता- मन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती। ज्ञानार्णव- श्री शुभचन्द्राचार्य, विरचित-हिन्दी भाषा टीकाकर्ता- श्री पन्नालाल बाकलीवाल । परम पूज्य आचार्य श्री १०८ दयासागर जी का मार्गदर्शन
३.
अधिकारान्त मङ्गल भावना
मैं बारह भावनाओं (अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ एवम् धर्म भावना) जो वैराग्य की जननी हैं, निरन्तर चिन्तवन करता हूँ।
__ मैं दशलक्षण धर्मों (उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन और ब्रह्मचर्य) को पालन करने की भावना करता हूँ।
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