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________________ के इस ध्यान से दसवें गुणस्थान के अन्त में मोहनीय कर्म का पूर्ण उपशम हो जाता है । (ख) एकत्ववितर्कवीचार यह ध्यान पृथक्त्ववितर्कवीचार के पश्चात् ही क्षपक श्रेणी मुनि के होता है । मन-वचन-काय इन तीनों योगों में से किसी एक योग द्वारा किसी एक द्रव्य या तत्त्व का चिन्तन करना एकत्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान है। इसमें जीव जिस योग में लवलीन रहता है उसका वही योग रहता है, योग बदलता नहीं है । इस ध्यान से ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी और अन्तराय कर्म का क्षय होकर अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति होती है। यह क्षय बारहवें गुणस्थान के अन्त होता है । केवलज्ञानी होने के पश्चात् त्रैलोक्यपूज्य, धर्म चक्रवर्ती, त्रिलोकाधिपति होकर अरिहन्तपद को प्राप्त होते हैं और भाव मुक्त हो जाते हैं। (ग) सूक्ष्मक्रिया - अप्रतिपाति जब सयोग केवली की अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहती है, तो यह ध्यान होता है । इसमें समुदघात के द्वारा अन्य अघातिया कर्मों की स्थिति यदि आयु कर्म से अधिक हो, तो आयु कर्म के बराबर हो जाती है। इस समुद्घात विधि में आत्मा के प्रदेश प्रथम समय में दण्ड रूप लम्बे, द्वितीय समय में कपाट रूप चौड़े, तृतीय समय में प्रतर रूप मोटे होते हैं और चौथे समय में इसके समस्त प्रदेश समस्त लोक में भर जाते हैं । ये सब क्रिया चार समय में होती है। इसमें ध्यान के बल से वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मों की स्थिति घटाकर अर्थात भोग में लाकर, आयु कर्म के समान हो जाती है । इसके पश्चात् उसी क्रम से लोकपूरण से प्रतर कपाट, दण्ड रूप होकर चौथे समय में शरीर के समान आत्म- प्रदेश हो जाते हैं । जिनकी चेष्टा अचिन्त्य है, ऐसे केवली भगवान उस समय बादर काय योग में स्थिति करके, बादर वचन योग और बादर मनोयोग को सूक्ष्म करते हैं। तत्पश्चात् सूक्ष्म काय योग में स्थिति करके, क्षण मात्र में उसी समय वचन योग और मनोयोग दोनों का निग्रह करते हैं। तब तीनों योगों में मात्र एक सूक्ष्म काय योग में स्थिति रह जाती है। यही तृतीय सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति ध्यान है । १.१७०
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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