SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ! | शोकरहित, जुगुप्सारहित स्त्रीवेदरहित, पुरुषवेदरहित, नपुंसकवेदरहित है। मेरी आत्मा क्षुधारहित, पिपासारहित, रोगरहित, चिंतारहित है और मेरी आत्मा में लेशमात्र भी कोई दोष नहीं है। मेरे सम्यक्त्वादि सभी गुण पूर्ण प्रकट हो गये हैं। ज्ञानावरणी कर्म के नष्ट होने से अनन्त ज्ञान, दर्शनावरणी कर्म के नष्ट होने से अनन्त दर्शन, वेदनीय कर्म के नष्ट होने से अव्याबाधत्व गुण, मोहनीय कर्म के नष्ट होने से क्षायिक सम्यक्त्व और अनन्त सुख आयु कर्म के नष्ट होने से अवगाहनत्व गुण, नाम कर्म के नष्ट होने से सूक्ष्मत्व गुण, गोत्र कर्म के नष्ट होने से अगुरुलघुत्व गुण और अन्तराय कर्म के नष्ट हो जाने से अनन्त वीर्य गुण प्रकट हो गये हैं। आत्मा ब्रह्मचर्य ( आत्मा में चर्या) में परम स्थित है। इस प्रकार आत्मा का चिन्तवन कर अतीन्द्रिय आनन्द में मग्न हो जायें। पिण्डस्थ ध्यान के पश्चात पंचरमेष्ठी के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करते हुए, चारों दिशाओं के बन्धन को खोल दें। यह ध्यान मोक्ष प्राप्ति के लिए कारणभूत है। उपरोक्त धारणायें चित्र १२३ में दर्शित की गयी हैं १३- शुक्ल ध्यान जिस ध्यान से परिणामों में विशेष विशुद्धि आती है, उस ध्यान को शुक्लध्यान कहते हैं। यह शुक्लध्यान धर्मध्यान के अनन्तर अत्यन्त शुद्धता को प्राप्त हुआ धीर, वीर मुनि के होता है। इसके चार भेद हैं (क) पृथक्त्ववितर्कवीचार इस ध्यान में छह द्रव्यों, सात पदार्थों का विचार करते समय मन-वचन-काय इन तीनों योगों में परिवर्तन होता रहता है । अथवा जिस ध्यान में पृथक्-पृथक् रूप से वितर्क अर्थात श्रुत का वीचार अर्थात संक्रमण होता है अर्थात जिसमें अलग-अलग श्रुतज्ञान बदलता रहता है, उसको सवितर्क सवीचार सपृथक्त्व ध्यान कहते हैं । पृथक्त्वविर्तकवीचार शुक्ल ध्यान का ध्याता १४ पूर्वों का ज्ञाता होता है । वितर्क- तर्क का अर्थ विचार करना है, 'वि' उपसर्ग है। इसलिए विशेष विचार करना वितर्क है। मोक्षशास्त्र के अनुसार वितर्कः श्रुतम्" श्रुतज्ञान को वितर्क कहते हैं। वीचार - ध्यान करते समय मन-वचन-काय इन योगों का बदलना तथा ध्यान करने का विषय बदलना वीचार है। क्षपक श्रेणी मुनि के इस ध्यान से दसवें गुणस्थान के अन्त में मोहनीय कर्म जो कि सब कर्मों में प्रधान है, का क्षय हो जाता है । उपशम श्रेणी मुनि १.१६९
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy