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________________ (ज) तृण, कण्टक, बांबी, विषम पाषाण, भस्म, उच्छिष्ट, हाड़, रुधिरादिक निंद्य वस्तुओं से दूषित स्थान। (झ) जो स्थान कौआ, उल्लू जिल्गव, गधा, गाल, श्वानादिक से अवघुष्ट हो अर्थात जहाँ ये शब्द करते हों, वह स्थान एवम् अन्य विघ्नकारक स्थान । - ध्यान के लिए योग्य स्थान (क) सिद्धक्षेत्र, तीर्थकरों के कल्याणक स्थान (ख) सिद्धकूट, चैत्यालय । (ग) समुद्र का किनारा, वन, पर्वत का शिखर, नदी के किनारे, जल के मध्य द्वीप।। (घ) प्रशस्त (निर्दोष-उज्जवल) वृक्ष के कोटर में, शमशान में, पर्वत की जीवरहित गुफा में, पृथ्वी के नीचे ऊँचे प्रदेश में, कदलीगृह (केलों के कुंजों) में, शालवृक्षों के समूह में, नदियों का जहाँ संगम हुआ हो। (ङ) आकुलतारहित उपद्रवरहित स्थान, शून्य घर, सूना ग्राम ! (च) वर्षा, आतप, हिम, शीतादि तथा प्रचण्ड पवनादि से वर्जित स्थान। तात्पर्य है कि ध्यान के योग्य वह स्थान है जहां रागादि दोष निरंतर लघूता को प्राप्त हों। ६- ध्यान के लिए योग्य आसन (क) काष्ठ का तख्ता तथा शिला पर अथवा भूमि पर व बालू रेत के स्थान में भले प्रकार स्थिर आसन करे। (ख) पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन, वीरासन, कमलासन, कायोत्सर्ग आसन। इस समय काल दोष से वीर्य की विकलता अथवा सामर्थ्य की हीनता के कारण, कई आचार्यों ने पदमासन और कायोत्सर्ग, ये ही आसन प्रशस्त कहे हैं। वैसे जिस आसन से सुखरूप मन को निश्चल कर सके, वही सुन्दर आसन है।
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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