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मन भी चंचल रहता है। जब पवन वशीभूत हो जाता है, तब मन भी वश में हो जाता हैं। पवन के स्तम्भनस्वरूप प्राणायाम को लक्षण भेद से तीन प्रकार का कहा है
(क) पूरक- द्वादशान्त कहिये तालु के छिद्र से अथवा द्वादश अंगुल पर्यंत से खेंचकर पवन को अपनी इच्छानुसार अपने शरीर में पूरण करे, उसको वायुविज्ञानी पंडितों ने पूरक कहा है। (ख) कुम्भक- उस पूरक पवन को स्थिर करके नाभिकमल में जैसे घड़े को भरें, तैसे रोके। नाभि से अन्य जगह न चलने दे सो कुंभक कहा है। (ग) रेचक- जो अपने कोष्ट से पवन को अतियत्न से मंद-मंद बाहर निकाले, उसको पवनाभ्यास के शास्त्रों में विद्वानों ने रेचक ऐसा नाम कहा है।
जो नाभिस्कन्ध से निकला हुआ तथा हृदयकमल में से होकर द्वादशान्त (तालुरंध्र) में विश्रान्त (ठहरा) हुआ पवन है वह पवन का स्वामी है। इस पवन के अभ्यास में हृदय कमल की काणका में पवन के साथ चित्त को स्थिर करने पर मन में विकल्प नहीं उठते और विषयों की आशा भी नष्ट हो जाती है तथा अंतरंग में विशेष ज्ञान का प्रकाश होता है। इस पचन के साधन से मन का वश करना ही फल है। इससे ध्यान में विशेष सहायता मिलती है। ७- ध्यान के लिए अयोग्य स्थान (क) मिथ्यात्वी व पापी जनों के रहने का स्थान।
कुदेव, कुशास्त्राध्ययन व कुगुरुओं का स्थान । (ग) जुआरी, शराबी, व्यभिचारी, बंदीजन. शत्रु, रजस्वला व भ्रष्टचारित्री स्त्रियां,
नपुंसक, अंगहीनों का स्थान। (घ) दुष्ट राजा (जमींदार) के अधिकार का स्थान।
जीव बध का स्थान। (च) शिल्पी. मोची, लुहार, ठठेरे आदि का छोड़ा हुआ स्थान। (छ) क्षोभकारक, मोहक तथा विकार करने वाला स्थान।
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