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________________ आकुलता से रहित (निराकुल), अक्षय परमसुख का अनुभव करता है अर्थात् निज । शुद्ध-आत्मा का अनुभव करता है। इस कथन को स्पष्ट करते हुए प्रवचनामृत सार में कहा हैवैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैर्ग्रन्थ्यं समचिंतता। परीषहजयश्चेति पंचैते ध्यानहेतवः।।। ध्यानस्य च पुनः मुख्यो हेतुरेतच्चतुष्टयम्। गुरूपदेशः श्रद्धानं सदाभ्यासः स्थिरं मनः ।। अर्थात- वैराग्य (संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति), भेद-विज्ञान, दिगम्बरत्व, समताभाव और परीषहों पर विजय ये पांच ध्यान के हेतु हैं। अथवा मुख्य निम्न चार हेतु हैं: सद्गुरुओं का सदुपदेश, समीचीन श्रद्धा, आगमाभ्यास और मन की स्थिरता। ५- ध्याता की योग्यता यद्यपि मुख्य तौर पर ध्यान के अधिकारी मुनि हैं, तथापि कितने ही आचार्यों ने अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर देशविरत, प्रमत्त, अप्रमत्त पर्यन्त यथायोग्य हेतु से कहे हैं। चारित्र और ज्ञान (सम्यक्दर्शन सहित) से संयुक्त, मदरहित, आलस्यरहित, संवेग व वैराग्ययुक्त, संवररूप, धीरवान, निर्मल चित्त वाला। ६- प्राणायाम का अभ्यास ज्ञानार्णव के प्राणायाम वर्णन सर्ग में श्री शुभचन्द्राचार्य कहते हैं। अतः साक्षात्स विजेयः पूर्वमेव मनीषिभिः । मनागप्यन्यथा शक्यो न कर्तुं चित्तनिर्जय ।।२।। अर्थ- आचार्य महाराज कहते हैं कि ध्यान की सिद्धि के लिए पूर्वाचायों ने प्राणायाम की प्रशंसा की है. इस कारण ध्यान करने वाले बुद्धिमान पुरुषों को प्रथम से ही प्राणायाम को विशेष प्रकार से जानना चाहिए क्योंकि इसके जाने बिना अन्य प्रकार किंचिन्मात्र भी मन के जीतने को समर्थ नहीं हो सकते। भावार्थ- यह प्राणायाम पवन का साधना है। सो शरीर में जो पवन होता है वह मुखनासाकादि के द्वारा श्वासोच्छवास द्वारा प्रगट जाना जाता है। इस पवन के कारण
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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