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(३) धर्म ध्यान (४) शुक्ल ध्यान- ये दोनों ध्यान उपादेय हैं और आत्मोन्नति के कारण हैं। शुक्ल ध्यान धर्म ध्यान के बाद ही होता है। १-आर्त्तध्यान
खोटे ध्यान को आर्त्तध्यान कहते हैं या विश्व का कोई भी पदार्थ जो मन में क्लेश उत्पन्न करे, उसके चिन्तन को आर्तध्यान कहते हैं। इसके पांच भेद हैं- आर्त्त, अनिष्ट- संयोगज, इष्ट-वियोगज, वेदना और निदान-बन्ध । २-रौद्रध्यान
__ रौद्र का मतलब क्रूरता से है। जो आत्मा का हर पल पतन करे, उसको रौद्र ध्यान कहते हैं। इसके चार भेद हैं - हिंसानन्दी, मृषानन्दी (असत्यानन्दी), चौर्यानन्दी
और परिग्रहनन्दी। हिंसानन्दी- जीवों के समूह को अपने से अथवा दूसरों के द्वारा मारे जाने पर अथवा कष्ट दिये जाने पर जो सदा हर्ष में ही मग्न रहता है उसे हिंसानन्दी रौद्र ध्यान कहते हैं। इसी प्रकार अन्य भी समझना चाहिए। ३- उपादेय ध्यान- धर्मध्यान एवम् शुक्ल ध्यान
"निर्जरा तत्त्व" के वर्णन से स्पष्ट होगा कि ध्यान एक आवश्यक अंतरंग तप है। इससे संवर व निर्जरा दोनों होते हैं।
___ अपने मन की समस्त प्रवृत्तियों को चारों ओर से रोककर मन को किसी एक विषय में लगाना ध्यान है। ध्यान को करने वाला ध्याता कहलाता है। जिस विषय पर चित्त को लगाया जाता है वह ध्येय है। ध्यान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अन्तर्मुहूर्त के बाद नियम से ध्यान बदल जाता है। इस प्रकार का ध्यान उपशम तथा क्षपक श्रेणी वाले जीवों के ही होता है। शेष संसारी जीवों के जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्यान होता है।
मन को वश में करने का उपाय संलग्न परिशिष्ट १.०५ में देखें। अन्तर्मुहूर्त- आवली के ऊपर और मुहूर्त के भीतर के प्रत्येक समय को अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। अड़तालिस मिनट का एक मुहूर्त होता है। आवली- एक श्वास में संख्यात
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