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________________ अध्याय ५ ध्यान मङ्गलाचरण इंद- सदमिद-चलणं, अनंत सुह णाण - विरिय - दंसणयं । भव्व - कुमुदेक्क चंद, विमल जिणिदं णमस्सामि || १३ || कम्म- कलंक - विमुक्कं केवलणाणे हि दिट्ठ-सयलठ्ठे । णमिऊण अनंत जिणं चल गइ-पंक- विमुक्कं णिम्मल -वर- मोक्ख लच्छि - मुह-मुकुरं । पालदि य धम्म - तित्थं, धम्म-जिणिदं णमंसामि ||१५|| ।।१४।। उम्मग्ग- संठियाणं भव्वाणं मोक्ख- मग्ग - देसयरं संति - जिणेसं पणमिय I । ।१६ ।। अर्थ- जिनके चरणों में सहस्त्रों इन्द्रों ने नमस्कार किया है और जो अनन्त सुख, ज्ञान, वीर्य एवम् दर्शन से संयुक्त तथा भव्यजन रूपी कुमुद्दों को विकसित करने के लिए अद्वितीय चन्द्रस्वरूप हैं ऐसे विमलनाथ जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ । | १३ || कर्मरूपी कलङ्क से रहित, केवलज्ञान में सम्पूर्ण पदार्थों को देखने वाले अनन्तनाथ जिन को मैं नमस्कार करता हूँ | |१४|| जो चतुर्गतिरूप पङ्क से रहित, निर्मल एवम् उत्तम मोक्ष - लक्ष्मी के मुख के मुकुर (दर्पण) स्वरूप तथा धर्म-तीर्थ के प्रतिपादक हैं, उन धर्म जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ ।। १५ ।। उन्मार्ग में स्थित भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग का उपदेश देने वाले शान्ति जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ | १६ | | मन की चंचलता को रोक कर किसी एक पदार्थ के चिन्तन-मनन में स्थिर करना ही ध्यान है। इसके चार भेद हैं- (१) आर्त्तध्यान (२) रौद्र ध्यान ये दोनों ध्यान हेय हैं और दुर्गति को ले जाने वाले हैं १.१५६
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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