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निश्चय मोक्षमार्ग नहीं बन सकता है। प्रारम्निक अवस्था में व्यवहार मोक्षमार्ग ही उपादेय है और जब हम शुद्धोपयोग में (निश्चय मोक्षमार्ग) में पहुंच जाते हैं तो व्यवहार स्वतः ही छूट जाता है, उसको छोड़ना नहीं पड़ता है।
मोक्ष -- अवस्था ही एक ऐसी अवस्था है जिसको प्राप्त करने के बाद यह जीव कभी भी संसार में नहीं आता है क्योंकि उसने जन्म और मरण दोनों नष्ट कर दिये हैं। इसलिए प्रत्येक भव्य जीव को मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए। वही उपादेयभूत है। ११. सल्लेखना
रत्नत्रय पालन करते हुए एवम् धर्म साधना करते हुए जीवन तभी सफल है जब सल्लेखनापूर्वक मरण हो। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसका विवेचन परिशिष्ट १.१० में दिया है।
१२. मेरा भविष्य क्या है ?
यह मेरे अपने हाथ में ही है। यदि मैंने रत्नत्रय का निर्दोषतापूर्वक, निरन्तर, समुचित पालन करते हुए, अन्त समय (मरण के समय) में सल्लेखनापूर्वक मरण किया, तो मेरी निकट भविष्य में मोक्ष प्राप्ति निश्चित है। इनके अभाव में वर्णनातीत दुःखों से भरपूर इस दुर्जेय भवसागर में अनन्त काल तक रुलना पड़ सकता है। सन्दर्भ१. पदमनन्दि पञ्चविंशति-रचयिता आचार्य श्री १०८ पद्मनन्दि । २. द्रव्य संग्रह- रचयिता श्री मन्नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती । ३. दिगम्बर मुनि- रचियता आर्यिका श्री १०५ ज्ञानमती माताजी। ४. मुक्ति पथ की ओर - विरचित श्री १०५ क्षुल्लक सन्मति सागर जी। अधिकारान्त मङ्गलाचरण
अधोलोक में ७,७२,००,०००, मध्य लोक में ४५८ तथा व्यन्तर एवं ज्योतिष लोक में असंख्यात, ऊर्ध्व लोक में ८४.६७.०२३ अर्थात तीन लोक में ८.५६,६७,४८१ तथा व्यन्तर-ज्योतिष लोक में अवस्थित असंख्यात अकृत्रिम जिन भवन (चैत्यालय) और इन जिन भवनो में विराजित समस्त जिन प्रतिमाओं के चरणों में मन-वचन-काय से .
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