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(३) वैयावृत्य- किसी प्रकार की लौकिक चाह (इच्छा) से रहित होकर शरीर तथा अन्य वस्तुओं से गणी जनों तथा मुनियों की सेवा करना वैयावृत्य है। वैयावृत्य करके यह जीव सर्वोत्कृष्ट तीर्थंकर प्रकृति को भी बांध लेता है।
(४) स्वाध्याय- स्वाध्याय शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- स्व अर्थात निज का अध्याय अर्थात अध्ययन करना। आत्मा का अध्ययन करना ही वास्तविक स्वाध्याय है। प्रमाद को छोड़कर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय तप है। इसके पांच भेद
जिनेन्द्र देव द्वारा कथित ग्रन्थों का वाचना (पढ़ना-पढ़ाना), पृच्छना (पूछना), अनुप्रेक्षा (याद किये गए विषय का चिन्तवन-मनन), आम्नाय (कण्ठस्थ किए विषय को पुनः पुनः याद करना) और धर्मोपदेश।
(५) व्युत्सर्ग तप- त्याग करने को व्युत्सर्ग तप कहते हैं। इसके दो भेद हैं
बाह्यव्युत्सर्ग-- क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य आदि बाह्यपरिग्रह का त्याग करना बाह्यव्युत्सर्ग है।
अन्तरंगव्युत्सर्ग- मिथ्यात्व, क्रोध, लोभ आदि अन्तरंगपरिग्रह का त्याग करना अन्तरंगव्युत्सर्ग है।
(६) ध्यान- मन की चंचलता को रोककर मन को किसी एक पदार्थ के चिन्तन-मनन में स्थिर करना ही ध्यान है या ज्ञान का निश्चल होकर वस्तु में स्थिर होना ध्यान कहलाता है। इसका विशेष वर्णन अध्याय ५ में दिया है। १०- मोक्ष तत्त्व
आत्मा का जो परिणाम समस्त कर्मों का क्षय करने में कारण होता है वह भावमोक्ष है और कर्मों का आत्मा से अलग होना द्रव्यमोक्ष है।
भावार्थ- मोक्ष का वास्तविक अर्थ है- मुक्त होना। आत्मा में लगे हुए सम्पूर्ण कों का नाश हो जाना ही मोक्ष है। आत्मा चेतन द्रव्य है और पुदगल द्रव्य अजीव अर्थात चेतनारहित है। इन दोनों की संयोग--अवस्था ही बंध है जिसके कारण यह जीव संसार में घूमता रहता है। इन दोनों का अलग-अलग हो जाना ही मोक्ष है। यह मोक्ष दो प्रकार का होता है-- (क) भाव मोक्ष और (ख) द्रव्य मोक्ष । आत्मा का जो भाव
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