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________________ (१) अनशन- जो मन और इन्द्रियों को जीतता है। इस भव और परभव के विषय. सुखों की इच्छा नहीं करता है। अपने स्वरूप में ही निवास करता है। उक्त प्रकार जो पुरुष कर्मों की निर्जरा के लिए एक दिन, दो दिन आदि का परिमाण करके आहार का त्याग करता है, उसके अनशन नामक तप होता है। (२) अवमोदर्य तप- राग-द्वेष आदि भावों को दूर करने के लिए भूख से कम भोजन करना अवमोदर्य तप है। एक ग्रास प्रमाण भोजन करना या एक ग्रास कम खाना भी अवमोदर्य तप है। (३) रस परित्याग- जिहा की लालसा तथा इन्द्रियों को वश में करने के लिए दूध, दही, घी, तेल, नमक और मीठा इन छह रसों में से किसी एकादि प्रकार के रसों का त्याग करके भोजन करना रस परित्याग तप है। (४) वृत्तिपरिसंख्यान-आहार को जाते समय साधु कुछ भी अटपटा नियम (घरों का, गली आदि का नियम) कर लेते हैं उसे वृत्तिपरिसंख्यान तप कहते हैं। (५) विविक्त-शय्यासन- स्वाध्याय या ध्यान आदि की सिद्धि के लिये एकान्त स्थान में बैठना विविक्त शय्यासन तप है। (६) कायक्लेश- ध्यान करने के लिए पदमासन आदि अनेक प्रकार के आसनों से दीर्घकाल तक बैठना, अनेक प्रकार से शरीर को कष्ट देना कायक्लेश तप कहलाता है। (ख) आभ्यन्तर तप- जो तप दूसरों के द्वारा सामान्यतः दृष्टिगोचर नहीं होता है, उन्हें आभ्यन्तर तप कहते हैं। इसके मूल में छह भेद होते हैं (१) प्रायश्चित्त- पूर्वकृत अथवा अज्ञान व प्रमादयश लगे हुए दोषों का शोधन करना प्रायश्चित्त है। इसके नौ भेद हैं-- आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप. छेद, परिहार और उपस्थापना। (२) विनय- "विनयत्यपनयति यत्कर्म अशुभं तद्विनयम्" अर्थात् जो अशुभ कर्मों को विनयति (दूर करता है या नष्ट करता है), ऐसे कर्म को विनय कहते हैं। इसके चार भेद हैं- ज्ञान, दर्शन, चारित्र, उपचार । ११५०
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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