SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सब अनेक प्रकार के भाव संवर के भेद हैं। इनका विस्तृत वर्णन मूलाचार आदि ग्रन्थों में दिया है। ६- निर्जरा तत्त्व कर्मों की स्थिति पूर्ण होने पर जिनका फल भोगा जा चुका है ऐसे पुद्गलमय कर्म जिन परिणामों से और तप के द्वारा जिन भावों से झड़ते हैं, वह भाव निर्जरा है। स्थिति पूर्ण होने से तथा तप के द्वारा कर्मों का झड़ना द्रव्य निर्जरा है। इस प्रकार निर्जरा दो प्रकार की जानना चाहिए। (क) सविपाक निर्जरा आबाधा-काल पूर्ण होने पर बद्धकर्म उदयावली में आकर निषेक- रचना के अनुसार खिरने लगते हैं, उनका यह खिरना ही सविपाक निर्जरा है। सिद्धों के अनन्तवें भाग और अभव्य - राशि से अनन्त गुणित कर्म-परमाणु प्रत्येक समय बन्ध को प्राप्त होते हैं और उतने ही कर्म परमाणु निर्जीर्ण हो जाते हैं। यह सब स्वभाव से ही होता है । (ख) अविपाक निर्जरा सम्यग्दर्शन, संयम और तत्पश्चरण आदि का निमित्त मिलने पर उन कर्म परमाणुओं को, जो कि अभी उदयावली में नहीं आये हैं उन्हें उदयावली में लाकर, खिरा देना अविपाक निर्जरा हैं। कर्मों की निर्जरा करने के लिए अविपाक निर्जरा ही उपादेय है क्योंकि यह जीव पुरुषार्थ द्वारा ही अपने कर्मों को नष्ट कर सकता हैं । तीर्थंकर परमदेव भी तप का आश्रय लेकर ही अपने सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट करके मोक्ष को प्राप्त करते हैं । तप जो कर्म की विशेष निर्जरा हेतु किया जाता है, वह तप है। ज्ञान और क्रिया से समन्वित 'निष्काम तप' द्वारा ही आत्मा परमात्मा बन सकता है। तप के दो भेद हैं- बाह्य तप और आभ्यन्तर तप । - (क) बाह्य तप- जो तपश्चरण दूसरों के द्वारा देखने में आता है, उसे बाह्य तप कहते हैं। इसके छह भेद हैं १. १४९
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy