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और सम्यक्चारित्र रूपी रत्नत्रय को धारण कर, यही उपादेय है और यही मोक्ष का कारण है। ७- संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व की उपादेयता
इस सन्दर्भ में "मैं कहाँ से आया हूं" प्रकरण में जो सात तत्त्वों का जिक्र आया है, उसमें से आश्रव व बन्ध तत्व का वहां कथन किया गया है जो संसार के कारण हैं। अब सम्यक्त्व के मार्ग में चलकर संसार भ्रमण के छूटने से उद्देश्य से उपादेय तत्वों अर्थात संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्वों को कहना चाहिए। ८- संवर तत्त्व
कषायों के शमन और इन्द्रियों के दमन से कर्मों का आना रुक जाना संवर है अर्थात् आत्मा में जिन-जिन कारणों से कर्मों का आस्रव होता है उन-उन कारणों को दूर करने से कर्मों का आना रुक जाना संवर कहलाता है। संवर के मूलतः दो भेद हैं- भाव संवर और द्रव्य संवर। (क) भाव संवर
शुभाशुभ भावों को रोकने में समर्थ जो शुद्धोपयोग है अर्थात् आत्मा के जिन भावों से कर्मों का आना बन्द होता है उन भावों या परिणामों को संवर कहते हैं। (ख) द्रव्य संवर
___ जो द्रव्य आस्रव अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्मों का आना रोकता है, उसको द्रव्य संवर कहते हैं।
पांच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह), पांच समिति (ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और व्युत्सर्ग), तीन गुप्ति (मनो, वचन, काय), दश धर्म (उत्तम- क्षमा. मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य). बारह अनुप्रेक्षाओं (अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ और धर्म), बाईस परीषह जय (क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्नय, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृण-स्पर्श, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा. मल, अज्ञान और अदर्शन) और पांच प्रकार के चारित्र (सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात), ये
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